पृष्ठ:मरी-खाली की हाय.djvu/२२

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} ( १३ उन्हें मल २ कर, धो कर न्हिला धुला कर शरीर को हरा और मन को भरा करके हँसा करती थीं। आखिर तो तुम माँ थी माँ के सामने बेटे क्या कभी बूढ़, हो सकते हैं ? किन्तु माँ ! उस दिन मैं तुम्हारे घर गया था। कार्तिक का पर्व था सभी जा रहे थे-मैं क्यों न जाता १ जाती बार कितनी होंस थी, मन में उमङ्ग भर रहीं थीं रास्ते के कष्ट क्या कहूँ ? रात को जंगल की कड़ी सर्दी में सिकुड़ गया, दिन को चमचमाती धूप में झुलस गया। बैलगाड़ी की सवारी थी, कच्ची, धूल कीचड़ और गड्ढों से भरी सड़क थी। गले की टाल को टुल २ करते बैल अपनी मंद गति से जा रहे थे ! ऊपर सूरज तप रहा था, उसी तपते सूरज के तेज चाँदने में मैं अपनी आँखें ऊँची उठा कर दूर-अति दूर जहाँ के वृक्ष काले २ परछाई से दीखते थे, जहाँ धरती आसमान मिल गये थे, देखता हुआ मन से पूछता था 'गंगी कितनी दूर है ? बालिका सरस्वती ने पूछा-भैया गंगा कितनी दूर है ? बालक विजय ने कहा-भैया ! गंगा कितनी दूर है ? मैंने कुछ मौज के स्वर में कहा 'वह आ रही गंगा । वह आ रहा, बालक ताली बजा कर हँसते २ बोल उठे आहा जी! हम खूब लोट २ कर न्हावेंगे। सरस्वती बोली हम चाँदी के रेत में सोने का घरमा बनावेंगे। बच्चे खिल रहे थे, उनके चेहरे धूप में