पृष्ठ:मरी-खाली की हाय.djvu/२३

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( १४ ) लाल हो रहे थे। हमे जितना उत्साह था उत्तना बैलों में नहीं था। बेचारे अबोध पशु थे! वे उसी तरह एक रस धीमी गति से चल रहे थे। राता कट रहा था, गाड़ी चल रही थी, सूरज ढल रहा था, धूप पीली हो रही थी, दूर के पेड़ घुधले हो रहे थे खेतों का रंग गहरा हो रहा था। सड़क की धूल पर पास के पेड़ों की परछाई छा रही थी। बैल थकावट में चर झूमते हुये, नथुनों से बड़ी २ सांग फेंकते, मञ्जिल पूरी होने पर दाना और आराम की आस में हिम्मत बांध कर उस भारी गाड़ी को खींच रहे थे। गंगी अभी दूर थी। नये प्रभात की पहली किरण जब गंगी को छू रही थी तब पहली बार मैंने उसे देखा । यद्यपि मेरी दृष्टि और उस दृष्य के बीच अभी अन्तर था। मेरे चारों ओर जंगल का सन्नाटा था, खेता और पौदों की लहर काली-वक्षों की छाया भयावनी हो रही थी, बहुत दूर पूर्व में उजेला था। दूर पर लम्बे २ ताड़ और एरण्ड के वृक्ष दीख पड़ते थे। वृक्षों पर कौवे बोल रहे थे । गाड़ी का पहिया चूचू कर रहा था । सरस्वती और विजय सो रहे थे। मैंने एकायक देखा ! उन लम्बे ताड़ और एरन्ड के वृक्षों के परे श्वेत चाँदी की चादर बिछी है और उस के परे एक ज्योतिमयी रेखा चमक रही हैं। मैंने