पृष्ठ:मरी-खाली की हाय.djvu/३७

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} उसने मौन सा धारण कर रक्खा था । उन ६ जवानों में एक मुसलमान बुढा पंजाबी जवान था । जब गाड़ी चल देती तब यही डब्बे के भीतर कैदी की हथकड़ियों की जंजीर पकड़े रहता था । कैदी बराबर देखता आ रहा था कि बूढ़े के होठ फड़क कर रह जाते हैं। वह कुछ कहने की लालसा भरी आँखों से कैदी को रह २ कर देख रहा है, पर कह नहीं सकता है । कैदी की दृष्टि भी आँखों में न थी, वह गूढ जगत में विचर रही थी। एकाएक उस बूढ़े ने ४ केले जेब से निकाले और जमीन तक झुक कर उन्हें दोनों हाथों में ले कर कैदी के सामने खड़ा होगया और बोला-'मेरे हुजूर' ! इस गरीब ना चीज़ की यह नज़र ' भी कबूल फर्मावें । कैदी ने देखा-ईश्वर से प्रार्थना करने के समय अक्सर प्रेम और विनय तथा भक्ति के जो चिन्ह मनुष्य के मुख पर आते हैं वे उस बूढ़े के मुख पर थे । कैदी ने एक दृष्टि उसके मुख पर डाली, और एक केला ले लिया सिपाही ने रो कर कहा-~'ये सब मैंने आपके लिये अपने पैसों से खरीदे हैं । मैं ७) रु० का गुलाम आदमी हूँ- मेरी जिन्दगी इस जल्लादी सुर्ख पगड़ी को सिर पर रखते बीत गई। मेरे कमीने पैसे पर दुआ बख्शिये, जिन्दगी में मुझे घमण्ड करने की एक बात हो जायगी, मेरे मुल्क के मां बाप ! कबल कीजिये, फिर इन कदमों का नियाज क्या नसीब होगा ?