पृष्ठ:मरी-खाली की हाय.djvu/५५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( ४६ .) महाराज का बनाया झकाझक सफेद महल ऐसा मालूम होता था जैसा गोबर के ढेर में श्रोला पड़ा हो । जैसे विधवा ने विछुए पहन रक्खे हो । मैंने एक हाय की और कहा हाय ! इन निर्लज्ज राजपूतों का बीज नाश क्यों न हुआ !!! इन की मा बांझ क्यों न होगई !!! मैं पीछे लौटा । अंधेरा हो गया था। जौहरी बाजार में सिर नीचा किये जारहा था । एक भी मनुष्य न था दूर तक दीपक न था-दूकानों की जगह पत्थरों के ढेर और जवाहरात की जगह अडूसे के पेड़, बस यही, वह जौहरी बाज़ार था । काले २ वृक्ष मृत वीरों के भूत मालूम पड़ते थे। मुझ से न रहा गया; मैं एक पत्थर पर बैठ कर अच्छी तरह रोया। एक बकरियों का बड़ा सा रेवड़ सामने होकर गुज़रा, सड़क की धूल आसमान तक चढ़ गई । क्षण भर को मुझे एक मज़ा आया। मैंने सोचा इस धरती पर इसी तरह वीरों की . सेना चलती होगी। ऐसी ही धूल उड़ती होगी । मैं उस अंधेरे में बड़े चाव से उन बकरियों को आँख गाड़ गाड़ कर देखने लगा मेरे मन में आई कि दौड़ कर एक बकरी के गले से लिपट जाऊ और पूछू-हे राजपूती जीव ! तू आज बकरी कैसे बन गया! अभागे!! बदनसीब !!!