पृष्ठ:मरी-खाली की हाय.djvu/६३

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(५४ ) न-जाने क्यों मैं अपने आपको धिक्कारने लगा। मैंने सोचा----अनुचित बात कह डाली । मुझे किसी युवती का इस प्रकार परिचय पूछने का क्या अधिकार है, पर एकाएक किसी अपरिचित को मैं किसी के घर में क्या कहकर ठहरा सकता हूँ। उस युवती का कुछ ऐसा रुबाब मेरे ऊपर सवार हुआ कि मैंने अपनी कठिनाई बड़ी ही आधीनता से उसे सुना दी। सुन- कर उसने उसी भाँति तीक्ष्ण दृष्टि से मेरी ओर ताकते हुए स्थिर स्वर से कहा- "इसमें कठिनाई क्या है ?' "वे लोग आपका परिचय पूछेगे।" "कहिए, बहन हैं, दूर के रिश्ते की हैं, यह भी चली आई हैं। विवाह समारोह में तो स्त्रियाँ विशेष उत्सुक रहती ही हैं।" मैं अब अधिक नहीं सोच सका। मैंने कहा--"तब चलिए। वह एक प्रकार से मेरा ही घर है, कुछ हर्ज नहीं। पर अब तो आप बहन हुई न, अब तो परिचय दीजिये। परिचय का नाम सुन कर फिर उसकी त्योरियों में बल पड़ गए, और वह रोष में श्रा गई। उसने अत्यधिक रूखे स्वर में कहा-"तीन बार तो कह चुकी महाशय, परिचय कुछ नहीं।" अब मुझे कुछ भी कहने का साहस न हुा । वह भी नहीं बोली । चुपचाप गाड़ी से ताकती रही । गाजियाबाद आ गया।