पृष्ठ:मरी-खाली की हाय.djvu/६६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( ५७ ) तक दारोगा जी को डाँट रहा था। युवती ने साफ शब्दों में . कहा-"भाई, जरा पानी ले लो। मैंने गिलास में पानी लेकर उसे दिया, वह पानी पीकर चुपचाप फिर खिड़की के बाहर मुह निकालकर बैठ गई। मेरठ आया, और हम लोग चले। उसके पास कुछ भी सामान न था। वह काले खद्दर की एक साड़ी पहने थी। और एक छोटी सी पोटली और उसके साथ थी। जेवर के नाम उसके बदन पर काँच की चूड़ियाँ तक न थीं। पैरों में जूते भी न थे। वह चुपचाप मेरे पीछे-पीछे चली आई । मैंने ताँगा किया, और वह पीछे की सीट पर बैठ गई । मैं आगे की सीट पर बैठा, और ताँगा हवा हो गया।. बहुत चेष्टा करने पर भी मैं उससे उसका नाम पूछने का साहस न कर सका। मैं सोचता था, वहाँ कोई नाम पूछेगा, तो बताऊँगा क्या ? पर फिर भी पूछ न सका। मित्र का घर आ गया। और मैंने बहन कह कर युवती को भीतर भिजवा दिया । उसने जाते-जाते कहा--"अवकाश पाकर आप एक घण्टे में मुझ से मिल लें।" मैंने स्वीकृति दी, और बह चली गई। एक घण्टे बाद मैं भीतर उससे मिलने गया। वह स्नान आदि करके तैयार बैठी थी। मुझे देखते ही कहा- "एक टैक्सी