पृष्ठ:मरी-खाली की हाय.djvu/६७

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1 ( ५८ ) मेरे वास्ते ला दीजिए, मुझे कहीं जाना है।" मैंने सोचा, मेरठ-जैसे छोटे से शहर में टैक्सी में कहाँ जाना है। मैंने कुछ दबी जबान से कहा-"तांगे से भी काम चल जायेगा।" उसने रुखाई से कहा-"नहीं, टैक्सी चाहिए।" अजब औरत थी । जरा सी बात मन के विरुद्ध हुई नहीं कि उसके नेत्रों और चेहरे पर रुखाई आई। मैंने टैक्सी मंगाने को नौकर भेज दिया। अब मेरे मन में एक बात आई, इसे कुछ रु० खर्च को देने चाहिए । पर कहूँ कैसे ? जो नाराज़ हो जाय, तो ?. इसका जैसा वेश है, उसे देखते से तो दरिद्र मालूम होती है, काफी सामान तक पास नहीं। मैं पशोपेश में पड़ा कुछ सोच ही रहा था-एकाएक उसने कहा--"एक कष्ट आपको और दूंगी।" मैंने समझा, अवश्य यह कुछ रुपया माँगेगी। मैंने जेब से मनीबेग निकालते हुए कहा-“कहिए।" उसने अपने हाथ की पोटली खोली, और एक बन्डल निकाल कर मेरे हाथ में थमा दिया। देखा, यह नोटों का गट्ठर है। सौ-सौ रु० के नोट थे। मैं अवाक रह गया। उसने सहज स्वभाव से कहा-"पंद्रह हजार रुपए हैं। इन्हें जरा रख लीजिए, कहीं रास्ते में गिर-गिरा पड़े, कहाँ-कहाँ लिए फिरूंगी। मेरा तो सिर चकराने लगा। स्त्री है या माया-मूर्ति, कपड़े तक बदन पर काफी नहीं, और