स्मरण नहीं । मानो हजार बोतलों का नशा सिर पर सवार था। छाती पर नोटों का गट्ठर और आँखों में वह अंतिम हास्य ! बस, उस समय मैं इन्हीं दो चीजों को देख और जान सका। मित्र हैरान थे। पर मैं तो मानो गहरे स्वप्न में मग्न था । तीसरे दिन एक पत्र मिला । उसमें लिखा था- "भाई, मुझे क्षमा करना, अब मैं आपसे नहीं मिल सकती। वे रुपये जो आपको दे आई हूँ, मेरठ-षड्यंत्र-केस में खर्च करने को वहाँ के माननीय अभियुक्तों की राय से उनके वकील को दे दीजिए । मैं इसी काम के लिए मेरठ गई थी---आपसे मिलकर । अनायास ही मेरा यह काम हो गया । रु. इस पत्र के पाने के २४ घंटे के भीतर ठिकाने पर पहुँचा दीजिये, वरना जो लोग इमकी निगरानी के लिये नियत हैं, वे इस अवधि के बाद तत्काल आपको गोली मार देंगे। सावधान ? दशा या असाव धानी न . कीजियेगा । इस पत्र के उत्तर की आवश्यकता नहीं- रूपया ठिकाने पर पहुँचते ही मुझे तत्काल उसका पता लग। जायगा। आपकी धर्म-बहन पत्र एक बार पत्र पढ़कर मेरा संपूर्ण शरीर काँप उठा, और हाथ से गिर गया। इसके बाद मैंने झटपट झुककर पत्र को उठा
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