पृष्ठ:मरी-खाली की हाय.djvu/७०

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लिया । भय से इधर-उधर देखा, कोई देख तो नहीं रहा। मेरी आँखों में आँसू भर आए । मैं नहीं जानता, क्यों मैंने पत्र को एक बार चूमा, और फिर आँखों और माथे से लगाया। इसके बाद उसे उसी समय जला दिया। नोटों का बन्डल अभी भी मेरी जेब में था। रुपए मैंने किसे दिए, यह जान देकर भी मैं किसी को नहीं बताऊँगा। हाँ, इतना अवश्य कह देता हूँ कि मैं इस काम से निपटकर फिर शीघ्र ही दिल्ली चला आया। पर कई दिन तक कचहरी न जा सका। ऐसा मालूम होता था, मानो शरीर की जान-सी निकल गई हो । एक दिन सन्ध्या-समय मेरे नौकर कहा--"कुछ लोग बहुत आवश्यक काम से आपसे भेंट किया चाहते हैं। बैठक में जाकर देखा, तो वहा दारोगा जो थे। उनके साथ डि० सुपरिंटेंडेंट पुलिस और कई सी० आई० डी० इन्पेक्टर भी थे। देखते ही मेरे देवता कूच कर गए। देखा सारा मकान घेर लिया गया है मैंने जरा रूखे स्वर से पूछा- "कहिए, क्या बात है ?" "दारोगा जी ने थोड़ा हँसकर कहा-"कुछ नहीं; जरा आपकी बहनजी से एक बार मुलाकात करके कुछ पूछना है ?"