पृष्ठ:मरी-खाली की हाय.djvu/८

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(तीसरे संस्करण पर-) एक-बात सुना है मरी खाल की हाय से लोहा भी भस्म हो जाता है, हमारी मर्दानगी भी लोहा खागई है यदि यह साहित्यक मरी खाल की हाय उसे भस्म कर सके, हमारी सामूहिक मर्दानगी को जगा सके तो हमारे अहो भाग्य !! आज भारत के कठिन दिन है, और यह उद्गार उसकी सामूहिक कठिनाइयों की सांस हैं, इन्हें पढ़ कर मेरे देश के युवकों. .की पलकें यदि आई हो सके, उनका हृदय पसीज सके-तो मेरा इन पंक्तियों को लिखना सफल हो जाय । श्री चतुरसेन