पृष्ठ:मरी-खाली की हाय.djvu/९०

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कहाँ जाते हो ?* अनन्त सागर के उठते हुए भीषण ज्वार में, हमारी पुरानी नाव को अरक्षित छोड़ कर कहाँ जाते हो ? इस प्रलय तूफान में, इस अन्ध निशा में, इस तीन मर्जन में, इन उत्तंग तरङ्गों में, हम असहाय तुच्छ नाविक कब तक ठहर सकेंगे ? किधर जावेंगे। मोहन ! मोइन ! ठहरो। हाय ! तुम हँसते हो ? तुम्हें अपनी विपत्तियों से खेलने का, परिहास करने का अभ्यास हो तो तुम खेलो, परिहास करो-परन्तु हमारी विपत्ति साधारण विपत्ति नहीं है, हमारी जान का मोल है हमारी आबरू का पानी है--तुम इस समय हँसो मत, निर्मोही न बनो, हमें यहाँ लाकर मत छोड़ो, न हो तो हमें पार लगाकर चले जाना, उत्तर या दक्षिण जहाँ तुम्हारा जी चाहे । के ये पंक्तियाँ गान्धी जी की. ६ वर्ष जेलयात्रा के समय सन् २१ में लिखी गई थी।