पृष्ठ:मल्लिकादेवी.djvu/१२५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

परिच्छेद वङ्गसरोजिनी। (१२३) AAAAAAANwANA/ AMMAWAN NAAN नरेन्द्र,-"सरला! प्रणय जाति, कुल, रूप, धन और आत्म- प्रसाधन का वशवर्ती नहीं है । विशुद्ध प्रेम प्राकृतिक और स्वर्गीय पदार्थ है ! इसमे यद्यपि दूषण भी हो, पर प्रणयी उसे भूषण ही समझते हैं।" सरला,-" अज्ञातकुलशीला के संग राजकुल का संबंध सराहनीय नहीं होगा। नरेन्द्र,-"न हो ! चाहे इस संबंध से त्रैलोक्य हमसे विमुख हो जाय; किन्त सरला ! मल्लिका के सङ्ग सघन कानन में भी हम स्वर्गीय सुख का अनुभव करेंगे, और मल्लिका बिना इंद्रपद भी हमें भार ही विदित होगा। तुम निश्चय जानी, मल्लिका की प्राप्ति की आशा ही से हम अभी तक जीवन धारण कर रहे हैं।" सरला,-"तो; महाराज! उसकी आशा ओप छोड़ दीजिए।" नरेन्द्र,-"सरला! तुम सरला होने पर भी गरला हो!!! हम शपथपूर्वक कहते हैं कि हम मान,सभम,राज्य, परिवार,सांसारिक सुख आदि सर्वस्व की आशा छोड़ सकते हैं। अपने अमूल्य जीवन की आशा में तिलाञ्जलि देसकते हैं, पर शरीर में प्राण रहते रहते मल्लिका की आशा नहीं छोड सकते, और न अब अधिक इस प्रकार तुम्हारे पापवाण ही को सहन कर सकते हैं।" सरला,-"तब तो आप व्यर्थ अपने सुखसदन को विजन वन धनाना चाहते हैं ! सहस्त्र वृश्चिक-दंशन से जो यातना अनुभव होती है, सरला के धाक्य से नरेन्द्र के हृदय में उससे भी अधिक दुःख हुआ। उन्होंने क्षणभर मौन रह. दीर्घनिश्वास लेकर भग्न स्वर से कहा,- सरला! तुमसे ऐसे उत्तर की प्रत्याशा हमें न थी।" सरला,-"तो क्या करूं, महाराज! इसमें मेरा क्या अपराध है ? मैं भी पराधीन हूं।" नरेन्द्र,-"यथेष्ट हुआ, अब अधिक कहने की कोई आवश्यकता नहीं है। हमारा-तुम्हारा अतिम साक्षात् यही है। यदि विनोद अपनी धरोहर मांगै तो उसे देदेना । आज के तीसरे दिघस मल्लिकादेवी के नाम अपना राज्य लिखकर हम कहा जायगे, यह भी तुम्हें विनोद से ही विदित होजायगा। सरला! यदि दया करके इतनी बात मल्लिकासे कहोगी तो हम तुम्हारे चिर अनुगृहीत रहेंगे। वह यह है कि मल्लिका