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(२०)
[तीसरा
मल्लिकादेवी

युवा,--"अच्छा यह तो बतलाओ कि तुम यहां कितने दिनों से रहती हो?"

बाला,--"महाराज ! यह क्या परिचय के बाहर की बात है ? 'आप क्षमा करिए, समय आवेगा तो सब मालूम होजायगा।"

युवा बालिका की कोमल बातों से परास्त होकर कुछ देरतक चुप रहा, फिर उसने दूसरी बात छेड़दी, कहा,-"प्रातःकाल हम यहांसे चले जायगे । क्या तुम कभी कभी हमें याद करोगी?"

यह सुन बालिका लज्जित होकर कुछ न बोली, पर उसने इस बात का मन में यों उत्तर दिया,-" मैने अपने मानसमदिर में तुम्हारी प्रतिष्ठा की है। अब ससार में इस आसन का अधिकारी दूसरा कभी नहीं हो सकता।"

इसके अनंतर उसने दीर्घनिश्वास लिया । यह देख युवा ने कहा,--क्या तुम्हारे नाम से भी हमारा हृदय शीतल और कान पवित्र नहीं होगा!"

किन्तु बालिका लज्जा से कुछ न बोली। यह देख कर युवा शैय्या पर खड़ा होकर और दोनो वाहु ऊपर उठा कर बोला,- "हे दयामय जगदीश्वर!तुम साक्षी रहना, इस सुन्दरी का उपकार 'छोड़कर हमसे अपकार कभी न होगा।"

यों कहकर उसने बालिका की ओर देखा और कहा,-"क्यों ! अब भी संदेह बाकी है ?"

बाला,--"नहीं! संदेह पहिले भी नहीं था, पर आप यदि ऐसे ही आतुर हों तो थोड़ासा कहूं ? "

युवा ने मानों आकाश का चांद पाया, आतुर होकर कहा,- "जो इच्छा हो सो कहो।"

बाला,--" मेरी माता दूसरी जगह रहती हैं, और मैं इस सखी के सग यहाँ रहती हूं। बीच बीच में कभी मां आती हैं और कभी मैं मां से मिलने जाती हूं।"

युवक,--"अच्छा, यहां तुम्हारी रखवाली कौन करता है ?"

बाला,--" सखी, और एक वृद्ध महंत हैं। वे इसी मन्दिर के भीतर रहते हैं।"

युवक,--"आज हमने तो उन्हें नहीं देखा! "

बाला,--वे कहीं गए होंगे।"