पृष्ठ:मल्लिकादेवी.djvu/४३

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परिच्छेद]
(४१)
वङ्गसरोजनी


मन आठवां परिच्छेद मंत्रणा। "करोतु नाम नीतिज्ञो व्यवसायमितस्ततः। फलं पुनस्तदेवं स्याधद्विधेर्मनसि स्थितम् ॥" (नीतिसार) जनध्या समागतप्राय थी । सूर्यनारायण अपना प्रखर म सं करनिकर आकर्षण करके धीरे धीरे अस्ताचल की ओर धावित होने लगे थे, अस्त होने में कई क्षणों जन का ही बिलय रह गया था । सध्यादेवी का आगमन देखकर विहंगगण दुर्गम और दूरस्थ स्थान से सत्वर आमा कर अपने अपने नीडों में प्रविष्ट हो, निज मातापिता और शिशुसंतानों से घोर रजनी के आगमन का कुसबाद कहने और अन्नजल त्याग कर निद्रादेवी के कोमल कोड़ में रात्रियोपन करने लगे थे। प्राप्तयौवना सती कमलिनी,-'पति के विरह में कैसी दुर्गति होगी!' यह विचार कर दिनकर को अपने कर से प्रस्थान का निषेध करती थी, किन्त-'नाथ मेरी बातों पर कर्णपात न करके सपत्नी के घर चले ही जाते हैं,'-यों सोच कर दुःखित हो, मुख मलिन करके अवगुंठनवती हो, सकोच से रोदनोन्मुखी हुई। इधर निशाकर को देख, निशाचरगण हर्षोत्फुल्ल हो अपना स्थाव छोड़कर आहार-विहार के लिये वर्हिगत हुए । आगतपतिका कुमुदिनी मूतन वेश से अलंकृत और प्रफुल्ल होकर विकसित मुख से पति का स्वागत करने, और उनका कर धर कर हृदय शीतल करने लगी। संसार ने मानो ज्योत्स्ना का जामा पहिर लिया। रात्रि के दो बज गए होंगे।भार्गवपुर, (भागलपुर) के गंगातट. वर्ती दुर्गस्थ राजकीय सुसजित प्रकोष्ठ में एक युवक पथ्यंकपर बैठे कोई गंभीर विचार में डूबे हुए थे। उनका क्याक्रम विचार करने से अन्यून बीस बाईस वर्ष से अधिक प्रतीत होता था। अंग प्रत्यंग सुडौल, पुष्ट और सुन्दरतासे युक्तथा । रगगौर और कान्तिविशिष्ट था।मुखश्री सुंदर और हृदयहारिणी तथा रमणीय थी।कुंचितहष्ण