पृष्ठ:मल्लिकादेवी.djvu/५३

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परिच्छेद]
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वङ्गसरोजनी।

का बहुत अनुसंधान किया, किन्तु जब कही उनका पता न लगा तो प्रौढ़ मत्रो बीरेन्द्रसिंह ने इन्हें राजसिंहासन पर बैठाया, किन्तु दोही मास के भीतर बीरेन्द्रसिंह भी अपनी पत्नी और कन्या के सहित अन्तर्धान होगए; तब उनके छोटे भाई धीरेन्द्रसिंह को मंत्री का पद दिया गया, पर वे भाई के सपरिवार अन्तर्धान होने से ऐसे भग्नहदय होगए थे कि उन्होने अपने भतीजे ( वीरेन्द्रसिंह के पुत्र) विनोदसिह को मंत्री बनाया और समय समय पर अपनी उत्तम सम्मति से वे उनकी सहायता करते रहे।

महाराज महेंद्रसिंह और मत्री वीरेन्द्रसिंह के अन्तर्धान होने के कुछ ही दिन पीछे राज्य के प्रधान सेनापति बीरसिंह ने भी महाराज की नौकरी छोड़ दी थी और वह नव्वाय तुगरलखां को सेना में जाकर भर्ती होगया था।

विध्य के पर्वत, पूर्व में भागलपुर जिले तकही हैं; वहांसे वे दक्षिण को मुडगए हैं । उसी पर्वत पर, जिसका नाम मंदरगिरि है, भागलपुर से बीस बाईस कोस दूर एक छोटासा, पर बहुत ही दृढ़ किला बना हुआ था, नाम उसका मोतीमहल था। वह किला दिल्ली के बादशाह के अधिकार में था। यहीं आकर बादशाह ने गुप्त रीति से महाराज नरेन्द्र सिंह को बुलाया था, जिसका वत्तान्त हम ऊपर लिख आए हैं।

भागलपुर से पूर्व-दक्षिण को कुछ झुकती हुई, साठ मील दूर, गङ्गा के दहने किनारे राजमहल नाम की बस्ती है । वहा पर उस समय गङ्गा किनारे किला और नव्याघ के अत्युत्तम बिलासभवन बने थे, जिनका अब खण्डहर भी भरपूर नहीं दीख पड़ता। उस समय नव्वाब तुगरलखां वहीं ( राजमहल में) था और भागलपुर तथा राजमहल के बीच में उसकी सेना छावनी डाले, बादशाही सेना से सामना करने के लिये पड़ी थी।

बादशाह से मिलने जाकर महाराज नरेन्द्रसिंह मृग का पीछा करके जिस जङ्गल और गिरिगुहा के समीप पहुंचे थे, वह स्थान भागलपुर से दो मञ्जिल दक्षिण,घने जङ्गल से घिरा हुआ मदरगिरि पर्वत था, जिसके विषय में पुराणों में लिखा है कि,-'इसी पर्वत से समुद्र मथा गया था।' उसी पर्वतारण्य में, जहांसे मोतीमहल नामक किला दस कोस दक्खिन था, महाराज नरेन्द्रसिंह ने अपने