सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:महात्मा शेख़सादी.djvu/२५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(२०)

देख कर अपने साथी से कहा, खेद की बात है कि शतरंज के प्यादें तो जब मैदान पार कर लेते हैं तो वज़ीर बन जाते हैं, मगर हाजी प्यादे ज्यों ज्यों आगे बढ़ते हैं, पहले से भी ख़राब होते जाते हैं। इनसे कहो, तुम क्या हज करोगे जो यों एक दूसरे को काटे खाते हो। हाजी तो तुम्हारे ऊंट हैं जो कांटे खाते हैं और बोझ भी उठाते हैं।

(७) रूम में मैं एक साधु महात्मा की प्रशंसा सुन कर उनसे मिलने गया। उन्होंने हमारा विशेष स्वागत किया। किन्तु खाना न ख़िलाया। रात को वह तो अपनी माला फेरते रहे और हमें भूख से नींद न आई। सुबह हुई तो उन्होंने फिर वही कल का सा आगत-स्वागत आरम्भ किया। इस पर हमारे एक मुंहफट मित्र ने कहा "महाशय अतिथि के लिए इस सत्कार से अधिक भोजन की ज़रूरत है। भला ऐसी उपासना से कब उपकार होसक्ता है जब कई आदमी भूख के मारे करवटें बदलते रहें।"

(८) एक बार मैंने एक मनुष्य को तेंदुए पर सवार देखा। भय से कांपने लगा। उसने यह देखकर हंसते हुए कहा, सादी, डरता क्यों है, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं। यदि मनुष्य ईश्वर की आज्ञा से मुंह न मोड़े तो उसकी आज्ञा से भी कोई मुंह नहीं मोड़ सकता।