पृष्ठ:महादेवभाई की डायरी.djvu/१५४

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- " - दया धर्मका मूल है, अिसी तरह देह अभिमानका मूल होनेके कारण दयाका विरोधी है । मगर देह सारी खर्च डालना ही शुद्ध दया है । यह दया तब तक नहीं छोड़ना चाहिये, जब तक घटमें प्राण हैं। सेवा करते हुओ या करने जाते हु देहका विसर्जन होना शुद्धतम दया है । यह चीज अनुभवसिद्ध है ।" मैंने कहा यह अनुभवसिद्ध तो है ही । मगर प्रस्तुत वाक्यमेंसे यह अर्थ नहीं निकलता । मामूली आदमीके लिझे यह विचार जरा बारीक कातने जैसा हो . जाता है, जब कि यह बात तो साधारण मनुष्य भी समझ सकता है कि अधर्मकी जड़ अभिमान है ।" बाप्प बोले. " नहीं, तुलसीमें असी रचना आती है । आखिर यह ठहरा कि दोनों पाठ लिखे जायँ । और अन्तमें यह तय रहा कि पत्रके लिभे तो अितना अद्धरण ही काफी या 'दया धर्मको मूल है' । आज नारणदासभाभीको अतना ही लम्बा पत्र लिखवाया, जितना कल पुरुषोत्तमको लिखवाया था । कल प्रसूतिकी झुपमा दी थी। १३-५-३२ आजकल वैसी ही किसी पीड़ासे बापू पीड़ित हो रहे हैं । और सुसका परिणाम यह है कि असे विचारोंसे भरे हुओ पत्र पैदा हो रहे हैं । हर तरहकी मेहनतका अकसा मेहनताना मिलना चाहिये यह खयाल बापने रस्किनसे लिया है और अिसे आश्रममें अमलमें लानेकी सुत्कण्ठा कल शारदा बहनने अक पत्र लिख कर स्वदेशी प्रदर्शनमें हायकी बुनामीका सामान रखनेकी सम्मति मांगी थी । बापू कहने लगे "यहाँसे राय नहीं दी जा सकती । मगर मेरे, विचारोंसे चिपटे रहनेकी कोमी जरूरत नहीं। परिस्थितिके अनुसार जैसा मुझे वैसा करो ।" अमरीकाके बारेमें खते हुआ अिसी पत्र लिला था "अमरीकामें महज अंश आराम ही नहीं है । शुद्ध संयम और सेवापरायणताके अदाहरण भी बहुत मिलते हैं ।" जैसा मालूम होता है मानो वल्लभभाभीने विदूषकका खेल पूरा ही खेलनेका निश्चय किया हो । "तो सो जाता हूँ ।” वे बोले --- जरूर, किसी दिन तो हमेशाके लिझे सोना पड़ेगा । भिसलिमे जरा तालीम लेने की जरूरत है।' ' यरवदा मन्दिर 'का पता लिखे हुओ पत्र आते हैं। डाकखानेने भी यह परिभाषा /मान ली है । वल्लभभाी कहने लगे "मन्दिर तो है ही, सिर्फ प्रसादीके वारेमें रोज झगड़ा होता है।" छगनलाल जोशीका लम्बा पत्र आया । और कल देवदासको जो. पत्र लिखवाया था, असमें बापूने अपने मनोरथोंका हूबहू वर्णन किया था। चरखा (दोतारा), सुर्दू, आकाशदर्शन, अर्थशास्त्र, आश्रमका अितिहास और रस्किनकी पुस्तकें ! ये सब अक साथ कैसे चल सकते हैं ? बापू कहने लगे । 33 १५१