पृष्ठ:महादेवभाई की डायरी.djvu/२२०

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साबरमतीमें हिन्दुस्तान और दूसरे देशोंमें बने हुझे करीब करीब सभी किस्मके सुघरे हुअ हल काममें लेकर देखे गये हैं और अनके बारेमें किये गये दावे अन्तमें सच्चे नहीं निकले | अक अनुभवी आदमीने कहा है कि देशी हलकी बनावट हिन्दुस्तानकी जमीनके बहुत अनुकूल है । वह जमीनको रक्षा करता है, क्योंकि वह जमीन अतनी ही गहरी जोतता है, जितनी किसानकी फसलके लिओ जरूरी है। मगर जितनी ज्यादा गहरी नहीं जोतता, जिससे जमीनको नुकसान पहुंचे। अलबत्ता में खेतीका नानकार होनेका दावा नहीं करता। मैं तो अन्हीके सबूत दे रहा हूँ, जिन्हें अिस मामलेमें अनुभव है | हमें अितना याद रखना चाहिये कि सुघरे हुओ औजार हमारी परिस्थितिके अनुकूल होने चाहिये । खुद अन्जिनवाले हलके विरुद्ध मुझे कोी आपत्ति नहीं है। जिसके पास हजारों अकड़ जमीन हो और फटनेवाली सख्त जमीन हो, असके लिये यह बड़ा लाभदायक साबित होगा। असी जमीन देशी हलसे अच्छी नहीं जुत सकती । मगर हमें तो जैसे औजार चाहिये, जो दो-तीन अकड़वाले किसानोंके अनुकूल हो सके ।" जालने greatest good of the greatest number (ज्यादासे ज्यादा संख्याका ज्यादासे ज्यादा भला) के अमूलका भी कुछ जिक्र किया था। असके बारेमें बापूने लिखा : "I do not believe in the doctrine of the greatest good of the greatest number. It means in its nakedness that in order to achieve the supposed good of 51 percent the interest of 49 percent may be, or rather, should be sacrificed. It is a heartless doctrine and has done harm to humanity. The only real, dignified, human doctrine is the greatest good of all, and this can only be achieved by uttermost self-sacrifice." " मैं अिस सिद्धान्तको नहीं मानता | असे नंगे रूपमें देखें तो उसका अर्थ यह होता है कि ५१ फीसदीके मान लिये गये हितोंकी खातिर ४९ फीसदोके हितोंको बलिदान कर दिया जाय । यह सिद्धान्त निर्दय है, और मानवसमाजको अिससे बहुत हानि हुी है | सबका ज्यादासे ज्यादा भला करना ही अक सचा, गौरवपूर्ण और मानवतापूर्ण सिद्धान्त है । और यह सिद्धान्त तभी अमलमें आ सकता है, जब मनुष्य अपना स्वार्थ पूरी तरह छोड़नेको तैयार हो । मिस पिटसनको लिखे गये पत्रसे : " 'Be careful for nothing' is one of the verses that has, ever remained with me and taken possession of "