पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/१७९

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  • इनिहास किन लोगोंका है। *

पर ऐतिहासिक दृष्टिसे विचार करने पर थे। श्रादि पर्वके तीसरे अध्यायमें उत्तङ्कने यही कहना होगा, कि नाग मनुष्य थे जो मागलोकमें जाकर नागोंकी जो स्तुति की बालोमें रहा करते थे। उनका राजा है, उससे महत्वकी बातें मालूम होती हैं। सक्षक खाएडव-बन-वासी था; वहाँसे बहूनि नागवेश्मानि गङ्गायास्तीर उत्तरे। हटाये जानेके कारण वह पाण्डवोका | तत्रस्थानपि संस्तौमि महतः पनगानिमान् ॥ कट्टर वैरी हो गया और भारती युद्ध में इससे ज्ञात होता है कि नाग लोग पाण्डवोको मटियामेट कर देनेके लिए गंगाके उत्तरमें भी रहते थे। यह भी वह कर्णका सहायक था। मालूम होता है कि कुरुक्षेत्रमें और ____ यहाँ ज़रा खुलासा करना ज़रूरी है। खाण्डव-वन-दाहके पूर्व उस वनमें तक्षक मालूम होता है कि पहले किसी समय और अश्वसेन रहते थे। सौतिने यद्यपि नाग और सर्प दो भेद रहे होंगे। भग- इन्हें नाग कहा है, तथापि ऊपरके वर्णनसे बद्रीतामें यह भेद यों बताया गया है- ये सर्प मालूम पड़ते हैं। इनके सम्बन्धमें "सर्पाणामास्मि वासुकिः" और "अनन्त- | इस स्तुतिमें ये श्लोक हैं- चास्मि नागानाम।" अर्थात भगवद्गीताके अहमैरावनज्येष्ठं भ्रातृभ्योऽकरवं नमः । समय अथवा भारत-कालमें सर्प और यस्य वासः कुरुक्षेत्र खाराडवेचाभवत्पुरा॥ नाग दोनों तरहके लोग हिन्दुस्थानमें थे। तक्षकश्चाश्वसेनश्च नित्यं सहचरावुभौ । सर्व सविष थे अर्थात आर्योको सताते । कुरुक्षेत्रं च वसतां नदीमिसमतीमन और नाम निर्विवार्यासे छेड-! यहाँ पर तक्षक और अश्वमेधका छाड़ न करते थे, उनके अनुकूल थे । सम्बन्ध व्यक्त है। तक्षकको नागराज कहा इसी कारण. नाग होने पर भी अनन्त. गया है। उसका वर्णन इस तरह भी है- विष्णुके लेटने के लिये पसन्द किया गया अवसद्यो नागधुम्नि प्रार्थयन्नागमुख्यताम् । है। परन्तु जान पड़ता है कि सोनिके इन सब बातोंसे मानना पड़ता है कि समय यह भेद न रहा । महाभारतके तक्षक सर्प अर्थात् प्रतिकृल जातिका आस्तीक-श्राख्यान और पौष-श्राख्यानमें था। वह पहले खाए डव वनमें रहता था। यह भेद बिलकुल नहीं मिलता। स्थान उसे नाग लोगोंके राजत्वकी इच्छा और स्थान पर देख पड़ता है कि सर्प और , बड़ी महत्त्वाकासा थी । पाण्डवोंने उसके नाग एक ही हैं। फिर भी यह माननेके प्रदेशको आग लगाकर खाली करा लिया: लिये जगह है कि शेष अथवा अनन्त श्रादि इस कारण उनके साथ तक्षक और नाग सोसे भिन्न होते हैं। जनमेजयकृत अश्वसेनकी शत्रुता हो गई। एक बात पर सत्रका नाम सर्पसत्र है और इस सर्पसत्र- ध्यान रखना चाहिये कि प्रारम्भमें नागों में विषोल्वण सर्प जलाये गये हैं (प्रा० और सर्पोका वंश तो एक ही था पर १०५७)। यहाँ पर उन सौके नाम भी। जातियाँ अलग थी: यह बात भगवदगीतासे दिये गये हैं जो जलाकर खाक कर प्रकट होती है। (इस कारण भी भग- दिये गये। वे लोग वासुकि, तक्षक, ऐरा-वद्गीताका समय सौतिके महाभारतसे वत और धृतराष्ट्रके कुलके थे, अनन्त पहलेका देख पड़ता है।) अथवा शेषके कुलके न थे। इसी तरह युद्ध में विरोधी दलके लोग। यह भी अनुमान है कि ये दोनों सर्प और अब हमें यह देखना है कि दोनों नाग लोग अलग अलग स्थानों में रहते दलोंमें कौन कौन ार्य थे और फिर