पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/२२५

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  1. पाश्रम-व्यवस्था।

२६ - गोत्रोत्पत्ति। उनके नाम गोत्रमें और जोड़ दिये गये। जातियोंके इसी विषयसे सम्बद्ध एक किन्तु यह बात कर्मभेदसे हुई नहीं जान और विषय है। शान्ति पर्वके २६ अध्याय- पड़ती। हाँ, यह हो सकता है कि उनके में इसके सम्बन्धमें लिखा है कि-"शुरू तपके प्रभावसे उनके नाम भी चल निकले शुरूमें चार ही गोत्र उत्पन्न हुए:- हो।श्रस्तु:यह बात भी समझमें नहीं पाती अङ्गिरा, कश्यप, वसिष्ठ और भृगु। फिर कि गोत्रका उच्चार और अवलम्ब काल- उनके प्रवर्तकोंके कर्मभेदके कारण और गतिसे चल पड़ा। इससे तो जान पड़ता और गोत्र उत्पन्न हुए, और तपः प्रभावके है कि ऐसा भी एक समय था जब कि कारण वे गोत्र उन प्रवर्तकोंके नामसे इसका अवलम्ब न था । यहाँ पर एक प्रसिद्ध हो गये । समयकी गतिसे शाता बात और कहने लायक है। सूर्यवंशी और लोग विवाह श्रादि श्रौत-स्मार्त विधियों में चन्द्रवंशी क्षत्रियोंकी जो वंशावली दी गई इन भिन्न गोत्रोंका अवलम्बन करने लगे।" है उसमें इन गोत्र-प्रवर्तकोंके नाम नहीं हैं। इस अवतरणसे प्रकट होता है कि महा- फिर उन वंशोंके क्षत्रियोंको गोत्रों के नाम भारतके पूर्वकालसे गोत्रोंकी प्रवृत्ति है। कैसे प्राप्त हो गये ? इसके सिवा यह भी और उनका उपयोग विवाह आदि श्रौत- एक प्रश्न है कि कुछ ब्राह्मणांके कुल चन्द्र- स्मात कामों में होता था । किन्तु इस वंशी क्षत्रियोंसे उपजे हैं : उनका सम्बन्ध वर्णनमें जो बात कही गई है वह कुछ उपरवाले गोधासे कैसे जुड़ता है ? विश्वा- विचित्र सी है। आजकलकी धारणाके Mi मित्र क्षत्रिय है: ब्राह्मण बनकर उसने अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तीनों अपने पुत्रोके द्वारा कुछ गोत्र प्रवृत्त किये वों में प्रत्येक मनुष्यका एक न एक गोत्र हैं। उनका सम्बन्ध किस प्रकार जुड़ता होता है। क्षत्रिय और वैश्य परिवारोंके है, यह भी देखने लायक है । खैर, ऊपरके गोत्रोंकी परम्परा स्थिर है या नहीं. यह अवतरणसे यह बात निर्विवाद सिद्ध होती बात कदाचित् सन्दिग्ध हो: किन्तु हाक आजकल जा गात्र परम्परा ह, वह ब्राह्मणों के अनेक भेदों में श्रौत-स्मार्त श्रादि और उसके उपयोगकी प्रवृत्ति महाभारत कर्म परम्परासे एकसे चले आ रहे है। कालके पूर्वमे, अर्थान सन् ईसवीके प्रथम और उनमें गोत्रोच्चार सदैव होता है। ३०० वर्ष पहलेसे है। ऊपरके अवतरणसे स्पष्ट होता है कि यह (२) पाश्रम-व्यवस्था । परम्परा महाभारतके समयसे भी पहले तक जा पहुँचती है। किन्तु मूल गोत्र वर्ण-व्यवस्था जिस प्रकार हिन्दुस्तान- आजकल पाठ समझे जाते हैं। पर उक्त के समाजका एक विशेष अङ्ग है उसी वचनमें वे चार ही क्यों कहे गये हैं ? और, प्रकार श्राश्रम-व्यवस्था भी एक महत्त्वका यह प्रश्न रह ही गया कि प्रवर्तकोंके केवल अङ्ग है। किन्तु दोनोंका इतिहास सर्वथा कर्म-भेदसे गोत्र कैसे उत्पन्न होंगे। पृथक है । यह तो देख ही लिया गया कि पाणिनिने गोत्रका अर्थ अपत्य किया है। वर्ण-व्यवस्थाका प्रारम्भ होकर उसका तब गोत्र-परम्परा भी वंश-परम्परा ही विकास किस किस प्रकारसे हुआ, और है। सप्तर्षि और अगस्ति यह पाठ प्रार- यह भी देख लिया गया कि इस समय म्भके गोत्र-प्रवर्तक हैं और इनके कुलमें : वर्ण-व्यवस्थाको अभेद्य और प्रचण्ड आगे जो कोई विशेष प्रसिद्ध ऋषि हुप स्वरूप किस तरह प्राप्त हो गया है।