पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/३५९

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8 राजकीय परिस्थिति। 8 ३३३ कपिदार्यो विशुद्धात्मा क्षारितश्चारकर्मणि। महायुद्धसे हमें मालूम होता है कि ये अष्टशास्त्रकुशलैन लोभाद्वध्यते शुचिः ॥ युरोपियन राष्ट्र एक दुसरेको निगल (सभा० अ० ५-१०४) जानेके लिए किस तरह तैयार बैठे रहते हैं। मालूम होता है कि यह नियम सभी स्पेन्सरके सिद्धान्तके अनुसार राष्ट्रीकी समयोंमें था कि न्याय-अमात्य मृत्युकी स्पर्धा (चढ़ा-ऊपरी) ही उनकी उन्नतिका सजा न दे । मृच्छकटिकमें भी चारुदत्तको कारण है, यह बात भी इस युद्धसे जान प्राणदण्ड राजाकी प्राशासे हुआ है। पड़ेगी। राष्ट्रोंका एक दुसरेको हरानेका मुसलमानों और पेशवाओंकी अमलदारीमें प्रयत्न करना युद्ध-शास्त्रकी उन्नतिका कारण भी यही नियम था । परन्तु ऊपरके वाक्य- हुश्रा है: यही नहीं, बल्कि इस तत्त्वका भी से दिखाई पड़ता है कि अमात्य मृत्युकी पूर्ण विकास हो गया है कि मनुष्यके सजा बाला-बाला देता था । (जब कि इसे | क्या हक है, गष्ट्रोका पारस्परिक सम्बन्ध प्रधान रूपसे अनाचार कहा गया है तब क्या है और राष्ट्रोका शत्रमित्र-सम्बन्ध सम्भव है कि यह बात कानूनसं न कैसे होता है । महाभारत-कालमें भी इस होती होगी।) सम्बन्धमें भारती पार्योकी उन्नति बहुत परराज्य-सम्बन्ध। दृग्तक हुई थी। उस समय इन सब राजकीय संस्थाओंका विचार करत बातोंका ज्ञान हो चुका था कि शत्रुको समय परराज्य-सम्बन्धका विचार करना कैसे जीतना चाहिए, अपनी स्वतन्त्रता अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। हिन्दुस्थानमें छोटे कैसे स्थिर रखनी चाहिए, मित्रराष्ट्र कैसे राज्य यद्यपि धर्म और वंशसे एक हो बनाने चाहिएँ, माराडलिक राजाओंको अर्थात् आर्य लोगोंके थे, तथापि उनमें अपने अधीन कैसे रखना चाहिए, आपसमें सदैव युद्ध हुआ करता था और · इत्यादि । अतएव हम इस परराज्य- परस्पर एक दुसरेको जीतनेकी महत्वा- सम्बन्धी तत्त्वका यहाँ विचार करेंगे। कांक्षा रहती थी। इस यातसे आश्चर्य न महाभारत-कालमें जो भिन्न भिन्न करना चाहिए । शर और लड़ाके लोगोम। श्रार्य गए थे, उनमें आपसमें चाहे जितने ऐसा हमेशा होता ही रहता था। यूना- झगड़े और युद्ध होते रहे हो, परन्तु उन नियोंके इतिहासमें भी यही दशा सदैव राष्ट्रोम बड़ी तीव्रता और प्रज्वलित रूपसे पाई जाती है। ग्रीक देशके शहरोंके गज्य यह भाव जाग्रत रहता था कि उनकी एक भाषा बोलते हुए और एक देवताकी निजी स्वतन्त्रताका नाश न होने पावे। पूजा करते हुए भी परस्पर बराबर आजकलके युगंपियन गोंकी तरह लड़ते थे। हर्बर्ट स्पेन्सरने लिखा है कि ; उनका इस विषय पर बड़ा ध्यान रहताथा। राजकीय संस्थाओंकी उत्कान्ति और आजकलके पाश्चात्य राजशास्त्रवेत्ताओंका उन्नत दशा इन्हीं कारणोंसे हुई है। पर- सिद्धान्त है कि स्वतन्त्र और एक मतके स्पर एक दूसरेको जीतनेकी महत्वाकांक्षा लोग चाहे कितने ही थोड़े क्यों न हों, हमें आजकलके यूरोपियन राष्ट्रोंमें भी परन्तु उनका स्वातन्त्र्य किसीसे नष्ट नहीं दिखाई पड़ती है। उनका भी धर्म एक है किया जा सकता। प्राचीन भारती आर्य और वह भी शम-प्रधान ईसाई-धर्म है। गोंकी परिस्थिति इसी सिद्धान्तके भनु- इतना सब कुछ होने पर भी और इन लोगों- कृल थी । उनका म्वतन्त्रता-सम्बन्धी के एक ही आर्य वंशके होने पर भी गत अभिमान सदेव जाग्रत रहता था। यदि