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महाभारतमीमांसा
  • महाभारतमीमांसा

कभी कोई राष्ट्र किसी दूसरेको जीत लेता थी। उस समय यह निश्चित हो चुका था था तो भी वह उस दूसरेको पादाक्रान्त कि यदि कोई राजा हरा दिया गया हो अथवा नष्ट नहीं कर सकता था। इस तो उसका राज्य उसके लड़के अथवा कारण भारती-कालके प्रारम्भसे प्रायः रिश्तेदारोंको ही दिया जाय। यह नियम अन्ततक हमें पहलेके ही लोग दिखाई था कि राष्ट्रके स्वातन्त्र्यका नाश न किया पड़ते हैं। महाभारत-कालके लगभग अन्य जाय । इस बातका उदाहरण भारती युद्ध राज्योंको नष्ट करके चन्द्रगुप्तके राज्यकी ही है कि राष्ट्रकी स्वतन्त्रताके लिए भार- तरह बड़े बड़े राज्योंका उत्पन्न होना शुरू तीय आर्य कितने उत्साह और दृढ़तासे हो गया था । परन्तु भारती-कालमें आर्य लड़ते थे। एक छोटेसे पाण्डव-राष्ट्र के लोगोंकी स्वातन्त्र्य-प्रीति कायम थी जिसके लिए भरतखण्डके सब राजा एक युद्ध में कारण-आजकल यूरोपमें जैसे पुर्तगाल, शामिल हुए और इतने उत्साहसे लड़े बेलजियम आदि छोटे छोटे स्वतन्त्र राज्य कि युद्धके प्रारम्भमें जहाँ ५२ लाख कायम हैं उसी तरह-प्राचीन कालमें मनुष्य थे, वहाँ अन्तमें केवल पाठ आदमी भारतीय आयौंने अपने छोटे छोटे राज्यों- : जीते बचे। यह कदाचित् अतिशयोक्ति को सैंकड़ों वर्षोंतक कायम रखा था ।* हो, परन्तु वर्तमान युरोपीय युद्ध में लड़ने आर्य राष्ट्रोंके समुदायका लक्ष्य ऐसा ही और मरनेवालोंकी संख्याका विचार करने था। वर्तमान युरोपीय राष्ट्र-समुदायोंकी पर हमें उत्साहके सम्बन्धमें वर्तमान युरो- जो यह नीति है कि किसी राष्ट्रको नष्ट पोय युद्धका साम्य दिखाई पड़ता है। नहीं होने देना चाहिए, उसी तरह प्राचीन इस प्रकार भारती राष्ट्रोकी स्वातन्त्र्य- कालमें भारती पार्योकी भी यही नीति प्रोति बहुत रढ़ थी और इसीसे राष्ट्रोंका • जब कोई राजा पीछा करे तब अवरोधोकी अर्थात् नाश न होता था। तथापि इन सब आर्य स्त्रियोकी भी परवा न करनी चाहिए। (क्या उन्हें मार राष्ट्रोमें सदैव शत्रुताका सम्बन्ध रहनेके डालना चाहिये ? क्या गजपूतोंकी नाई स्त्रियोंका नाश कारण एक दूसरे पर आक्रमण करनेकी किया जाय) तैयारी हमेशा रहती थी। बल्कि महा- अवरोधान जुगुप्सत का सपनधनेदया। भारतमें राजधर्ममें कहा गया है कि न त्वैवात्मा प्रदातव्यः क्षमे मति कथंचन ।। (शां० १३१-८) राजाको हाथ पर हाथ धरे कभी नहीं अथवा- बैठना चाहिए। किसी दूसरे देश पर हतो वा दिवमारोहेन् हत्वा वा क्षितिमावमत्।। चढ़ाई अवश्य करनी चाहिए।* इस युद्ध हि मंत्यजन् प्राणान् शक्रस्येति मलोकताम् ।। कारण प्रत्येक राष्ट्रमें फौजकी तैयारी (अ०१३१-१२) यह भी वर्णन है कि राजा मर जाय पर उद्योगका हमेशा रहती थी, लोगोंकी शरता कभी त्याग न करे अथवा किसीकी शरणमें न जाय । मन्द नहीं होती थी और उनकी स्वातन्त्र्य- उद्यच्छेदेव न नमेदुखमो ह्य व पौरुपम् । प्रीतिमें बाधा नहीं पाती थी। फिर भी भप्यपर्वणि भज्येत न नमतेह कस्यचित् ॥ आर्योकी नीतिमत्ताके लिए यह बड़ी अप्यरण्यं समाश्रित्य चरेन्मृगगण : सह । भारी भूषणप्रद बात है कि लड़ाई के नियम न त्वेवोविज्झतमर्यादर्दस्युभिः सहितश्चरेत् ।। धर्मसे खूब जकड़े रहते थे और साथ ही इन वाक्योंसे पता चलता है कि सिकन्दरके समय भारतीय क्षत्रियोंने स्वाधीनताके लिए किम प्रकार प्राण- वे दयायुक्त रहते थे। इस बातका वर्णन त्याग किया था। इस अध्यायके वर्णनमे मालूम होता है । भूमिग्नी निगिर ति मोबिलशयानिव । कि यह प्रमन यूनानियोकी लड़ाईकानी है। गनान निवास बास चाप्रवामिनम।। सा