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महाभारतमीमांसा
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कवच रहता था । कवचका उपयोग हाथी। रथी और सारथी बहुत करते थे। अब हम हाथीके बिषयमें विचार बाणोंकी वृष्टि बहुधा रथियों और सार- करेंगे । हाथीकी प्रचण्ड शक्ति और थियों पर ही होती थी, इस कारण : महावतके आशानुसार काम करनेकी उनको कवचकी बहुत आवश्यकता थी। तैयारीके कारण हाथीको फौजमें महत्वपूर्ण और ये योद्धा भी बड़े बड़े क्षत्रिय होते स्थान प्राप्त हुआ था । परन्तु उसकी सैंड, थे, इसलिए वे मूल्यवान् कवचका उप- | नरम होनेके कारण, सहजही तोड़ी जा योग कर सकते थे। हाथी परसे लड़ने- सकती है। इसलिए गण्डस्थलसे सूंड़की थालेकी भी यही स्थिति थी। वे ऊँचे स्थान छोरतक हाथीको लोहेका जिरह-बख्तर पर रहते थे, अतएव उन पर बाणोंकी पहनाते थे और उसके पैरों में भी जिरह- अधिक वृष्टि होती थी, और उन्हें कवच बख्तर रहता था। इस कारण हाथी पहनना आवश्यक था । हाथी परसे , लड़ाई में विपक्षियोंकी खूब खबर लेते थे। लड़नेवाला योद्धा धन-सम्पन्न होनेके यद्यपि बात ऐसी थी, तथापि मल्ल लोग कारण कवच पा सकता था। हाथों में कुछ भी हथियार न लेकर हाथी- भिन्न भिन्न लोगोंकी भिन्न भिन्न युद्ध- से लड़ा करते थे। हाथीके पेटके नीचे केसम्बन्धमें ख्याति थी। पाश्चात्य देश 'चपलतासंघसकर..सोंकीमारसे उसकी गान्धार, सिन्धु और सौवीर अश्वसेनाके व्याकुल कर देनेके पश्चात् उसे चक्कर सम्बन्धमें प्रसिद्ध थे। इन देशोमै प्राचीन खिलानेका वर्णन भीम और भगदत्तके समयमें उत्तम घोड़े पैदा होते थे और युद्ध में किया गया है (द्रोणपर्व० अ० २६)। अब भी होते है । फारस तथा अफगा- वर्तमान समयमें भी हिन्दुस्थानी रजवाड़ों- निस्तानके घोडोंकी इस समय भी तारीफ में कभी कभी होनेवाले गजयुद्धोसे होती है। इन देशोंके वीर घोड़ों पर बैठ- लोगोंका विश्वास हो गया है, कि इस कर तीक्ष्ण भालोसे लड़ते थे । उशीनर प्रकारके धैर्य और शक्तिके काम असम्भव- लोग सब प्रकारके युद्धमें कुशल थे। नीय नहीं हैं। दतिया संस्थानमें अबतक प्राच्य लोग मातङ्ग-युद्धमै प्रसिद्ध थे । कभी कभी यह खेल हुआ करता था, हिमालय और विन्ध्याद्रीके जङ्गलीमें कि हाथीके दाँतम पाँच सौ रुपयोंकी एक हाथी बहुतायतसे पाये जाते थे, इसलिए थैली बाँध दी जाती थी और खिलाड़ी प्राच्य, मगध इत्यादि देशोंके लोगोंका उस हाथीसे लड़ाई करके थैलीको छीन हाथियोंके युद्ध में कुशल होना स्वाभाविक लिया करता था। अस्तु: प्राचीन समयमें ही है। मथुराके लोग बाहुयुद्ध में कुशल : हाथी पर महावत और युद्ध करनेवाला थे। यह उनकी कुश्ती लड़नेकी कीर्ति योद्धा दोनों बैठते थे। युद्ध करनेवाला अबतक कायम है। दक्षिणके योद्धा तल- धनुष्यबाणका, विशेषतः शक्ति अथवा वार चलाने में कुशल होते थे। मरहठोंकी बरछीका, उपयोग किया करता था । वर्तमान समयकी कीर्ति घोड़ों परसे गज-सेनाकी कभी कभी हार भी हो हमला करनेके सम्बन्धमें है। यहाँ इस जाती थी। इस प्रकार गजसेनाका पहला बात पर ध्यान देना चाहिए कि उपर्युक्त हमला सहन करके जब वह सेना एक दाक्षिणात्य विदर्भ देशके रहनेवाले हैं बार लौटा दी जाती थी तब वह अपनी (शान्ति अ०६६)। ही फौजका नाश कर डालती थी या