पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/५३६

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महाभारतमीमांसा

ॐ महाभारतमीमांसा परम आदि कारण है। और अत्यन्त तेजः- शानयोगी ही जानते हैं। यह सर्वच खरूप तथा प्रकाशक है। उसीको योगी संसरण करनेवाला जीव अपना पाया अपने अन्तर्यामसे देखते हैं । उसीसे सूर्य- सुकृत चन्द्रलोक पर भोगकर बाकी साधा को तेज मिला है; और इन्द्रियोकोभीशक्ति पृथ्वी पर भोगता है। जीवात्मारूपी पक्षी उसी परब्रह्मसे मिली है। उस सनातन भग- | पंखरहित है और सुवर्णमय पत्तोंसे भरे वानका दर्शन झान-योगियोंको ही होता | हुए अश्वस्थ वृक्ष पर आकर बैठते हैं: है। उसी परब्रह्मसे यह सारी सृष्टि उत्पन्न फिर उनके पंख फूटते हैं, जिनसे वे हुई है और उसीकी सत्तासे यह जगत् अपनी इच्छाके अनुसार चारों ओर उड़ने सल रहा है । उसीके तेजसे ब्रह्माण्डकी लगते हैं। इस पूर्ण ब्रह्मसे ही पूर्ण उत्पन्न सारी ज्योतियाँ प्रकाशमान हैं। वह सना- हुआ है। उसीसे दूसरे पूर्ण उत्पन्न हुए सन ब्राह्मयोगियोंको ही दिखाई पड़ता है। हैं: और उन पूर्णोसे चाहे इस पूर्णको जल, जलसे उत्पन्न होता है। सूक्ष्म महा- निकाल डालें, तो भी पूर्ण ही शेष रहता भूतोंसे स्थूल महाभूत उत्पन्न होते हैं: यह है। इस प्रकारके उस सनातन भगवान्- सारी जड़ और चेतन सृष्टि, देव, मनुष्य की योगी लोग ही देखते हैं। उसीसे इत्यादि उत्पन्न होकर सम्पूर्ण पृथ्वी भर वायु उत्पन्न होते हैं: और उसीकी और जाती है और तीसरा प्रात्मा प्रश्रान्त और लौट जाते हैं। अग्नि, चन्द्र उसीसे उत्पन्न तेजोयुक्त सारी सृष्टिको, पृथ्वीको और हुए हैं। जीव भी वहींस उत्पन्न हुमा स्वर्गको धारण कर रहा है । उस आत्मरूपी है। संसारको सब वस्तुएँ उसीसे उत्पन्न परब्रह्मको और सनातन भगवानको योगी हुई है। पानी पर तैरनेवाला यह हंस । लोग देखते हैं । इसी प्रादि कारणले ऊँची- अपना एक पैर ऊँचा नहीं करता : मीची सब जीवसृष्टि और पृथ्वी, आकाश | परन्तु यदि वह करेगा, तो मृत्यु और तथा अन्तरिक्षको धारण किया है। सारी | अमरत्व दोनोंका सम्बन्ध टूट जायगा दिशाएँ भी उसीसे निकली हैं, और सब (परमात्मा हंसरूपी है। वह संसाररूपी मदी और अपरम्पार समुद्र भी उसीसे उदयसे एक पाद कभी ऊपर नहीं निका- निकले हैं। उस भगवान्को योगी देखते | लता: परन्तु यदि वह निकाले तो फिर उस सनातन परमात्माकी ओर संसार भी नहीं है: और मोक्ष भी नहीं जीवारमा ना है।) मनुष्यको केवल हृदयसे ही परमे रूपी घोड़े जोतकर दौड़ता है । उस श्वरका ज्ञान होता है । जिसे उसकी परब्रह्मकी कोई मूर्ति अथवा प्रतिकृति इच्छा हो, उसको अपने मनका नियमन नही हो सकती। अथवा आँखोंसे उसे करके और दुःखका त्याग करके अरण्यमें देख भी नहीं सकते। परन्तु जो लोग जाना चाहिए । और यह भावना रखकर उसका अस्तिस्व अपने तर्क, बुद्धि और कि मुझे किसीका भी मान न चाहिए, दयसे ग्रहण करते हैं, वे अमर होते हैं। मुझे मृत्यु भी नहीं और जन्म भी नहीं, यह जीव-नदी बारह प्रवाहोंसे बनी है। उसे सुख प्राप्तिसे आनन्दित न होना इसका पानी पीकर और उस पानीके चाहिए, और दुःखप्राप्तिसे दुःखी भी न माधुर्यसे मोहित होकर असंख्य जीवात्मा होना चाहिए, किन्तु परमेश्वरके प्रति खिर इसी आदि कारणके भयङ्कर चक्रमें फिरते रहना चाहिए। इस प्रकार जो मनुष्य रहते हैं: ऐसे उस सनातन भगवानको यत्र करता है, यह इस बातसे दुःखित