पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/९५

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  • महाभारत ग्रन्थका काल *

अहिंसन्सर्वभूनानि अन्यत्र तीर्थेभ्यः। सिद्धान्त हमारे पूर्वोक्त मतका विरोधी अर्थात, भगवद्गीताका यह मत उप- नहीं है। निषदसे लिया गया है, न कि बौद्ध धर्मसे। अब इस बातका विचार किया जायगा दूसरी बात, शूद्रोंके सम्बन्धमें भी उप- कि सनातन-धर्मके मतमतान्तरों से किन निषदोंका यही अनुकूल मत है कि उन्हें किन मतोंका उल्लेख महाभारतमें है और ब्रह्म-विद्याका अधिकार है । उपनिषद् उनके कौनसे ग्रन्थ उल्लिखित हैं। नारा- कालमें विद्वानोंकी कैसी समदृष्टि थी, यणीयमें पञ्चमहाकल्प विशेषण विष्णुके यह बात छांदोग्य उपनिषद्में कही हुई 'लिये लाया गया है। टीकाकारका कथन रैक्व और जानश्रुतिकी कथासे स्पष्ट देख ' है कि इसमें पाँच मतों और उनके पड़ती है । यह तत्व उपनिषद्से गीतामें आगमोका समावेश होता है । अर्थात् , लाया गया है: यह कुछ बौद्ध कालके उसका कथन है कि उस शब्दमें शेष, अनन्तरका नहीं है । इतना ही नहीं, किन्तु वैष्णव, सौर, शाक्त और गाणेश, ये पाँच यह भी कहा जा सकता है कि बौद्ध काल- मत शामिल हैं। परन्तु महाभारतमें प्रत्यक्ष के अनन्तर सनातनधर्म मतका प्रवाह उल्लेख केवल प्रथम तोन मतोका ही उलटी दिशामें जाने लगा और उस समय है: शाक्त और गाणेश मतों अथवा बौद्ध लोगोंके श द भिक्षुओंका निषेध श्रागोंका उल्लेख नहीं है। शैव मनका करनेके लिये ही यह निश्चय किया गया . उल्लेख पाशुपत-शानके नामसे किया गया कि शू द्रोको ब्रह्म विद्याका अधिकार नहीं है और प्रत्यक्ष शिवको उसका कर्ता कहा है। यह मत बादरायणके वेदांत सूत्रमें गया है। परन्तु इस मतके किसी अन्ध- पाया जाता है। वहाँ उपनिषद्की जान-का नाम नहीं पाया जाता । यह भी नहीं श्रुति और रैक्वकी कथाका कुछ भिन्न : बतलाया गया है कि पाशुपतोंके मन क्या सम्बन्ध मानकर शूद्र शब्दका निराला थे। वैष्णवोंके मतका उल्लेख भागवत ही अर्थ किया गया है । मारांश, भग- नामसे किया गया है, परन्तु यह नहीं वगीता बौद्ध मतके पहलेकी और प्राचीन बतलाया गया कि उनके ग्रन्थ कौन कौन- उपनिषदोंके समीपकी है। बादरायणके से थे। पञ्चगत्र मतके प्रवर्तक स्वयं भग- वेदान्त सूत्र बौद्ध मतके प्रचारके अनन्तर- वान् हैं। इस शब्दका उपयोग विष्णु के-बहुत समयके बादके-हैं। हमने इस | अथवा श्रीकृष्णके लिये किया जा सकता प्रन्थके एक स्वतन्त्र भागमें यह सिद्ध ! है। इसीसे इस मतके लोगोंको 'सात्वत' करनेका विचार किया है कि भगवद्गीता- कहते हैं। यह कहीं नहीं बतलाया गया का समय वर्तमान महभारतके समयसे है कि पाञ्चरात्र मतके कौन कौनसे प्रस्थ बहुत प्राचीन है। यहाँ तो सिर्फ महा- थे। शांति पर्वमें जो नारायणीय उपा- भारतके वर्तमान स्वरूपके समयका ही । ख्यान है वह सब इसी मतका है। मुख्य विचार करना है। इसमें बौद्ध मतका पञ्चरात्र अथवा नारद-पञ्चरात्रके अति- उल्लेख प्रत्यक्ष नामसे प्रकट न हो, तो भी रिक्त किसी दूसरे ग्रन्थका उल्लेख नहीं यह स्पष्ट देख पड़ता है: इसलिये सिद्ध है, इसलिये काल-निर्णयके सम्बन्धमें कोई है कि वर्तमान महाभारतका समय बौद्ध विशेष सहायता नहीं मिलती। शान्ति मतके अनन्तरका है, अर्थात् ईसवी सन्के पर्वके ३३५ वें अध्यायमें यह वर्णन है कि पहले ४००के अनन्तरका है। और यह जो सात ऋषि 'चित्रशिखण्डी' के नामले