पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/१३

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सम्पादकीय /9 जो भारतवासियों में अपने अतीत का गौरव-गान पढ़कर आत्म-गौरव का भाव भरते थे, उनकी दीन-हीनता एवं पराधीनता की दशा में नवजागरण का संचार करते थे। ये पन्ने द्विवेदीजी के समय में एक दस्तावेज़ की तरह थे और आज भी धरोहर रूप में सुरक्षित हैं, साथ ही, उतने ही उत्प्रेरक, ताजा और पठनीय-संग्रहणीय । पराधीन भारतवासियों के आत्म-गौरव को बढ़ाने वाला एवं पूरी दुनिया के सामने उसकी समृद्ध सांस्कृतिक एवं साहित्यिक परम्परा को दर्शाने वाला संस्कृत का विपुल साहित्य जब यूरोपीयन विद्वानों की निगाहों से गुजरा एवं जब उन पर काम होने लगा, तब भारत के प्रति यूरोपीयन जनता के मन में आदर का संचार हुआ । इन विदेशी विद्वानों ने किस तरह संस्कृत साहित्य पर काम करना शुरू किया एवं उनके कामों का विवरण क्या है, इसे हिन्दी में सबसे अधिक द्विवेदीजी ने दर्शाया है । यूरोपीय विद्वानों के द्वारा किये गये संस्कृत ग्रंथों के भाष्यों, टीकाओं एवं समालोचनाओं से सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि भारत के प्राचीन इतिहास की विपुल सामग्रियाँ उजागर हुईं। दूसरा लाभ यह हुआ कि भारतीय दर्शन, साहित्य एवं ज्योतिष के विषय में भारतवासियो की प्राचीनता (इस संदर्भ में) पुरी दुनिया के हर देश से अधिक सिद्ध हुई। संस्कृत भाषा सीखने वाले पहले अंग्रेज अधिकारी विलियम जोन्म थे। इन्होंने किस तरह संस्कृत सीखी, इसका विवरण बेहद रोचक एवं पठनीय है. जिसे द्विवेदीजी ने पहली बार प्रस्तुत किया। संस्कृत भाषा सीखकर विलियम जोन्स ने 'मनु-स्मृति' एवं कालिदास के 'अभिज्ञान शाकुन्तलम्' का अंग्रेजी में अनुवाद किया । 'अभिज्ञान शाकुन्तलम्' के अनुवाद से इंगलैंड के विद्वानों में तहलका मच गया। जो अंग्रेज भारतवासियों को अफ्रीकी जनजातियो की तरह असभ्य समझते थे, प्राचीन भारत की इस महान् कृति से अभिभूत हो गये एवं भारतीय लोगों के प्रति उनके मन में आदर का भाव जाग्रत हुआ। इसके बाद अनेक संस्कृत भाषा सीखने की ओर उत्प्रेरित हुए और इंगलैंड, जर्मनी तथा फ्रांस में अनेक संस्कृत भाषाविद् हुए, जिन्होंने विपुल संस्कृत साहित्य का अवगाहन किया। इनमें दो बड़े व्यक्तित्व हो चुके हैं-मैक्समूलर एवं मैकडोनल । मैक्समूलर से द्विवेदीजी का पत्राचार भी होता था । मैक्समूलर एवं मैकडोनल ने अपने नाम संस्कृत-प्रेम के कारण मोक्षमूलर भट्ट एवं मुग्धानलाचार्य्य तक रख लिये थे। द्विवेदीजी ने मैकडोनल की अलग से जीवनी लिखकर उनकी विचारधारा की आलोचना की है । दूसरे संस्कृत विद्वान् डॉ० कीलहान थे, जब मैक्समूलर साहब ऋग्वेद का सम्पादन कर रहे थे तब कुछ समय तक कीलहान ने भी उनकी सहायता की थी। द्विवेदीजी ने अलग से उन पर भी लेख लिखा है। द्विवेदी जी ने 'विदेशी विद्वान' नामक पुस्तक की भूमिका में लिखा है- "इस चरितमाला के चार चरित ऐसे पुरुषों के हैं, जिन्होंने भारत से हजार। कोस दूर योरप में जन्म लेकर, केवल विद्याभिरुचि की उच्च प्रेरणा से, संस्कृत भाषा का अध्ययन किया और अनेक उपयोगी ग्रंथों की रचना भी की । एक ने अरबी के सदृश क्लिष्ट भाषा का चूड़ांत ज्ञान प्राप्त करके अरब के निवासी विद्वानों तक से साधुवाद प्राप्त किये। अलबरूनी ने तो, बड़े-बड़े कष्ट उठाकर यहीं भारत में संस्कृत भाषा सीखी और वह अपनी भाषा में एक ऐसा ग्रंथ 'लिखकर छोड़ गया, जो अब तक बड़े ही महत्त्व का समझा जाता है।" 'विदेशी विद्वान'