पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/१५४

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150/ महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली 1 जाय, सारी बातों की बात यह है, और कुछ नहीं। इस युद्ध का जो कारण बताया जाता है, वह यह है । टर्की के अधीन मैसीडोनिया नाम का जो प्रान्त योग्प में है, उसके अधिकाश निवासी ईसाई हैं। बलिन की सन्धि के अनुसार यह तय हो गया था कि मैसीडोनिया को स्वराज्य दे दिया जाय। आन्तरिक मामलो में वह जो चाहे सो करे; केवल बाहरी बातों के विषय में वह टर्की के अधीन रहे । अब कहा यह जाता है कि टर्की ने मैसीडोनिया को स्वराज्य नही दिया। उसके ईसाई धर्मानुयायियों को क्रूर तुर्कों के अत्याचार से बचाने और मैसीडोनिया में, बलिन की सन्धि के अनुसार, स्वराज्य स्थापन करने ही के लिए हम लड़ते है । सो मुसलमान-तुर्क अत्याचारी, और योरप के ईसाई शान्ति के अवतार ! इसी से योरप के चारो शान्ति- मागगे ने, सुनते है, युद्ध छिड़ने के पहले ही योरप के अन्तर्गत तुर्कों के राज्य को, आपस में, काग़ज़ पर, बाँट लिया था। और अब तो यह मचमुच ही बॅटा हुआ सा है; क्योंकि तुर्क बराबर हारते ही चले जाते है । बलगेरिया की फ़ौज कान्सटैन्टीनोपिल के पास पहुँच गई है । सो अब तुर्कों का पैर वहाँ से उठ गया समझिए। महाशक्तियो का पारस्परिक संघर्षण बचाने के लिए कान्सटैन्टीनोपिल और डारडनल्म मुहाने पर तुर्कों का कब्जा रह तो चाहे भले ही रह जाय । पर वह भी औरो के लाभ के लिए, तुर्कों के नहीं। एक समय था जब तुर्को के नाम से योरप के बड़े बड़े माम्राज्य भयभीत रहते थे। मिस्र की उर्वग भूमि और एशिया मायनर के धनवान् देशो से लेकर ट्रिपली, अरब और अलजियम की मरुभूमि तक के अधिपति उनके चरणो पर मौगाते रखने में अपना परम मौभाग्य समझते थे। आज उन्ही तुर्को का, जिनका मसार मे इतना ऊँचा स्थान था और जिनका शताब्दियो तक बोलबाला रहा बड़ा ही बुरा हाल है। वे ठोकर पर ठोकर खाते है । लोग उन्हे धक्के पर धक्के लगाते है। उनके अस्तित्व तक को मिटा देने का प्रयत्न हो रहा है। सैकड़ो वर्षों से टर्की का सम्बन्ध योरप की महाशक्तियो से है। इन शक्तियो की काया-पलट हो गई। पर टर्को चुपचाप इस परिवर्तन को देखता हा । अपने पड़ोमियो को उन्नत होते देख कर भी उमने सबक़ न सीखा। र्याद वह अब भी न मीखेगा तो एशिया में भी उसकी खैर नहीं। जिमकी भुजा में बल है, वही सुख से समार में रह सकता है। उसी से मब कोई डरता है ! उमी के हक नही मारे जाते । उमी का सव कहीं आदर होता है। निर्बल का कहीं भी गुजारा नहीं । ( दिसम्बर, 1912 को 'सरस्वती' में प्रकाशित । 'संकलन' पुस्तक में संकलित। -