पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/१५५

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कावागची की तिब्बत-यात्रा [1] तिब्बत का भौगोलिक अनुसन्धान करने और वहाँ के लोगों की यथार्थ स्थिति का पता लगाने के लिए लोगों ने समय समय पर अनेक चेष्टायें की है। किन्तु ऐसे साहसी पुरुषों की संख्या बहुत ही थोड़ी है जो इस विषय में विशेष रूप से कृतकार्य हुए हैं। सबसे पहले, 1328 ईसवी में, ओडोरिक नाम के एक ईसाई पादरी ने तिब्बत जाकर वहाँ अपना मत फैलाने का यत्ल किया। किन्तु, अन्त में, उसे हताश होकर वहां से लौटना पड़ा । क्योंकि उस देश में बौद्ध मत के सामने ईमाई धर्म का प्रचार होना सर्वथा असम्भव था। 1661 ईसवी में फ्रान्स के दो निवामी तिब्बत में भ्रमण करने निकले । परन्तु वे लोग लामा तक पहुँचे या नहीं, इस विषय मे सन्देह ही है। फिर भी बहुत से लेखकों का विश्वास है कि वे दोनो पेकिन से लामा तक गये। वहाँ से नेपाल हो कर भारत को लौट आये । लामा तिब्बत की राजधानी है । अतएव तिब्बत की राजनैतिक, सामाजिक तथा धाम्मिक अवस्था का पूरा पूरा ज्ञान वहाँ जाने ही से प्राप्त हो सकता है। 1774 ईसवी में भारत के तत्कालीन गवर्नर-जनरल, वारेन हेस्टिग्स, ने तिब्बत के माथ व्यापार-सम्बन्ध स्थापित करने की इच्छा से एक अंगरेज़ अफ़सर को वहाँ भेजा। किन्तु वह लामा तक न जा सका। तब हेस्टिग्म 1781 मे, कप्तान टर्नर नामक एक और माहव को तिब्बत भेजा। यह महाशय तिब्बत में दो बरस तक रहे । एक और अंगरेज को भारत से लासा तक जाने का मौभाग्य प्राप्त हुआ था। उनका नाम था टाम्म मैनिग। यह बात 1811 ईसवी की है। इस बीच में रूस, आस्ट्रिया, इंगलैंड, और उन्नीसवी शताब्दी के अन्त मे जाणन, अमेरिका आदि कई देशों का ध्यान तिब्बत की ओर आकृष्ट हुआ। संसार का कौतूहल इस देश के विषय मे दिन दिन बढ़ता ही गया। 1881 में बाबू शरच्चन्द्र दास नामक एक वगाली महाशय को भी तिब्बत में जाने की इच्छा हुई । उन्होने बड़ी बुद्धिमानी से तिब्बत-सरकार मे एक 'पास' प्राप्त कर लिया और उसी साल अपनी यात्रा भी प्रारम्भ कर दी। पहली यात्रा में दास महाशय को लास. तक पहुंचने का सुभीता न हुआ। वे तिब्बत के एक नगर में दो महीने तक रह कर वापस चले आये । जब भारत-सरकार को इनकी यात्रा का हाल मालूम हुआ तब उसने इनसे दूसरी यात्रा करने का अनुरोध किया। शरत् बाबू ने इस बार भी तिब्बत सरकार को धोखा देकर उससे एक 'पास' प्राप्त कर लिया। इस यात्रा में आप लासा तक पहुंच गये। वहाँ आप बीस रोज तक