पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/२०९

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ऐनी कैथराइन लायड - । कई महीने हुए इस पुण्यात्मा नारी की मृत्यु, काशी में, हो गई । काशी में जो हिन्दू-कालेज है उसका एक बोडिग-हाउस अर्थात् छात्रालय भी है । उम छात्रालय से इनका बहुत ही घना सम्बन्ध था। लड़कों से वे इतना प्रेम रखती थी और उनके अध्ययन, उन्नति और आराम का उनको इतना खयाल था कि बोडिंग-हाउम के विद्यार्थी उनको माता के ममान समझते थे । इसलिए वे उनको 'बोडिंग-हाउस की माता' कहने लगे थे। श्रीमती ऐनी ब्यसन्ट ने इस पवित्रकीर्ति विदुषी का एक छोटा-सा सचित्र जीवनजरित हिन्दू-कालेज मैगेजीन में प्रकाशित किया है । उसी का आशय हम आपको सुनाते हैं। विगह के पहले श्रीमती लायड का नाम ऐनी कैथराइन जोन्स था । इनके पिता इंगलैंड के विच्यस्टर नगर के स्कूल के हेड-मास्टर थे। उन्होने इनको बहुत अच्छी शिक्षा दी । वे वनस्पतिशास्त्र के प्रख्यात ज्ञाता थे । उन्होने इस विषय की अनेक पुस्तके भी लिखी हैं । इन पुस्तकों में जो चित्र हैं वे उनकी कन्या ऐसी कैथराइन ही ने बनाये है । बहुत ही छोटी उम्र में इन्होने चित्र बनाना सीखा था। इनके चित्रों से अनेक पुस्तकें अलकृत हुई हैं। इस विद्या से इनको बड़ा ही अनुराग था। इसी विद्या ने पीछे से इनको इनके जीवन-निर्वाह में बहुत कुछ सहायता दी। यथासमय इनका विवाह लायड नामक एक पादरी के साथ हुआ। विवाह के अनन्तर अपने पति के यहाँ बहुत वर्षों तक इन्होने अनेक उपयोगी काम किये। 1889 ईसवी में मैडम ब्लेवेट्स्की से इनकी भेंट हुई । तब से ये थियासफ़िस्ट हो गई। कुछ दिनों में मैडम महाशया ने, लन्दन नगर में, मजदूर लड़कियों का एक क्लब (समाज) स्थापित किया । ये उसकी अधिष्ठात्री नियत हुई । जो लड़कियां दियासलाई और रबर आदि के कारखानो में काम करती थी उन्हीं के लिए यह क्लब था । शारीरिक और मानसिक व्यथाओं से पीड़ित होकर भी श्रीमती ऐनी लायड ने इन लड़कियों की दशा, इस क्लब द्वारा, बहुत कुछ सुधारी। जिनकी कोई परवा न करता था, ऐसी इन निर्धन लड़कियों को इन्होंने अनेक प्रकार से आराम पहुंचाया। ये उनके साथ काम करती थीं; उनको पुस्तकें पढ़कर सुनाती थीं; उनको गाना सुनाती थीं; उनको तरह तरह के व्यायाम सिखलाती थीं; और अनेक प्रकार के हितोपदेश से उनकी आत्मोन्नति करती यीं। इस प्रकार कुछ ही दिनों में ये उन लड़कियों की दृष्टि में देवी के तुल्य हो गईं। 1894 ईसवी में ऐनी कैथराइन लड़कियों के एक प्रसिद्ध स्कूल की अध्यक्षता स्वीकार करने के लिए लंका गईं। परन्तु वहाँ का जल-वायु उनके लिए हितकारी न सिद्ध हुआ । इससे कई महीने बाद वे योरप को लौट गई। परन्तु लंका से वे मदरास आई और वहाँ से काशी होकर तब वे लन्दन को लौटीं।