पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/२११

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फारसी-कवि हाफिज हाफ़िज़ फ़ारसी का बहुत बड़ा कवि हो गया है । उसे फारसी के कवियों का बादशाह कहना चाहिए । गुलिस्ताँ और बोस्तों के लिखने वाले शेखमादी से भी, कविता में, उसकी बराबरी नहीं की जा सकती। कविता से जहाँ तक संबंध है, हाफ़िज़ को फ़ारसी का कालिदास कहना चाहिए। हाफ़िज़ में कवित्व-शक्नि अपर्व थी । वह स्वाभाविक कवि था। उसकी उक्तियाँ ऐसी भावभित और ऐसी नैसर्गिक है कि पढ़ते ही हृदय पर विलक्षण प्रभाव उत्पन्न करती हैं। प्रेम, पूज्यभाव और आतंक-सभी यथास्थान मन में आविर्भूत हुए बिना नहीं रहते । ऐसे गंभीर भाव, ऐसी हृदयद्रावक उक्तियाँ मरल होकर भी ऐसी परिमाजित भाषा, फ़ारसी में, हाफिज के 'दीवान' में ही मिल सकती है, अन्यत्र बहुत कम । परतु एसे महाकवि के जीवन का बहुत ही कम वृत्तांत जाना गया है। हाफ़िज़ का नाम मुहम्मद शम्मउद्दीन है । हाफ़िज उसका तखल्लम था। अपने दीवान में उसने इस तखल्लुस का बहुत ही अधिक प्रयोग किया है । इसीलिये वह अपने मुख्य नाम से प्रसिद्ध नहीं, तखल्लुम मे ही प्रसिद्ध है । हाफ़िज़ के माता-पिता अच्छी दशा में थे; परंतु हाफ़िज़ ने दरिद्रावस्था ही में अपनी उम्र बिताई । यह बात उसकी कविता से मूचित होती है । वह फ़ारसी के शीराज नगर में, ईसा की चौदहवी सदी के आरंभ में उत्पन्न हुआ और वही बुड्ढा होकर मरा । यह ठीक-ठीक नहीं मालूम कि किस सन्, किस महीने, और किस तारीख़ को उसका जन्म हुआ, परंतु उसके मरने का समय निश्चय- पूर्वक ज्ञात है । शीराज़ में उसकी जो क़ब्र है, उस पर 791 हिजरी, अर्थात् 1 373 ईसवी, खुदा हुआ है। उस पर एक शायर ने उसके मरने की तारीख भी यह लिखी चिरागे अहले मानी ख्वाजः हाफ़िज कि शमए बूद अज़ नूरे तजल्ला चु दर खाके मुसल्ला याफ्त मज़िल बिजो तारीखश अज ख़ाके मुसल्ला अर्थात् अर्थवेत्ताओं के दीपक ख्वाजा हाफ़िज़ ने, जो कि खुदा के तेज की मशाल था, खाके मुसल्ला (ईदगाह या नमाज़ पढ़ने की जगड) में स्थिति पाई । उसकी तारीख खाके मुसल्ला में ढूंढ़ो (ख़ाके मुसल्ला के अंक, अबजद के कायदे से, 791 होते हैं), इससे स्पष्ट है कि हाफ़िज़ को मरे कोई 530 वर्ष हुए । परंतु उसे मरा क्यो कहना चाहिए। जब तक फ़ारसी भाषा का अस्तित्व है और जब तक हाफ़िज़ का अलौकिक कवित्व उसके दीवान में विद्यमान है, तब तक वह मृत नहीं; जीवित है । जिसका यश:शरीर बना है, पार्थिव शरीर के नाश हो जाने से कोई क्षति नहीं।