पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/२१६

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212 | महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली (3) अगर चुनांच: दरी हजरतत न बाशद वार। बराय दीद: बियावर गुबारे अज दरे दोस्त ।। अनुवाद और न जो तू जाने पावै उसके सम्मुख किसी प्रकार । नैनों के अंजन को रजकण लादे उसका द्वार बुहार । (4) दिल शौके लबत मुदाम दारद । यारब जु लबत चि काम दारद ।। अनुवाद मन में तेरे अधर की रहत निरंतर चाह । कौन हेत जाने हरी कछू न याकी थाह ।। (5) जो शरबते महरो बादए शौक़ । दर साग़रे दिल मुदाम दारद ।। अनुवाद मधुरासव-अनुराग अरु प्रेम-वामणी-वार । अंतर घट में भर रहे निज मन-मुकुर निहार । (6) शोरीदए जुल्फ़े यार दायम् । दर दामे बला मुक़ाम दारद ।। अनुवाब धुंघरारी लट की लगी जाके मन को लाग । नाग-पाश में वह ग्है बध्यो सकल सुख त्याग ।। (7) बायार कुजा नशीनद आँ को । अंदेशए लासो अनुवाद प्रीतम सँग कैसे करे सो नि:शंक विहार । लोकलाज कुलकानि सों जो भयभीत अपार ।। (8) खुर्रम दिले आँ कसे कि सुहबत । बायार अलहबाम दारद ॥ आम दारद ।।