पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/२२५

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॥संदर्भ रूस जनरल कुरोपाटकिन - कुरोपाटकिन का नाम हमारे देशवासियों में से पहले प्रायः बहुत कम लोग जानते रहे होंगे । परन्तु जब से रूस और जापान का युद्ध छिड़ा है तब से जनरल कुरोपाटकिन का नाम सबकी जबान पर है। आपने अमानुषी वीरता के काम किये हैं; आप साहस और शौर्य की मूर्ति हैं; बल में आप भीमकाय भीम के समान हैं। आपके सेना-नायकत्व की बहुत बड़ी शोहरत है। परन्तु ऐसे विश्वविख्यात वीर के द्वारा संचालित सेना को खर्वाकार भतखोवे जापानी पराजय पर पराजय देते चले जा रहे है । रूस की समग्र स्थल-सेना का नायकत्व स्वीकार करके उसको पुनः पुनः परास्त होते देख कुरोपाटकिन अपने मन में क्या कहते होंगे, यह नही जाना जा सकता। क्या पीत-वर्ण जापानी कुरोपाटोकन के पूर्व संचित यश को बिलकुल ही काला कर देंगे ? कुरोपाटकिन मशहूर योद्धा हैं। युद्ध करना उनको बहुत प्रिय है । युद्ध उनके लिए दिल बहलाव की चीज़ है । जैसे जैसे से अपनी इस युद्ध-प्रियता को बढ़ाते जाते हैं, तैसे ही तैसे रूस की राज-सत्ता भी एशिया में बढ़ती जाती है । कुरोपाकन ने रूस को क्रम क्रम से उन्नत होते देखा और अपने भुजबल से उन्होने उसके विस्तार को बढ़ाया है। बुखाग और ताणकन्द के आस पास कुरोपाटकिन ने पहले पहल अपनी युद्ध-प्रियता की चाशनी चखी। उस समय उनकी उम्र बहुत कम थी। वे सब-लेफ्टिनेंट थे। परन्तु तात्कालिक युद्ध में उन्होंने आश्चर्यकारिणी वीरता दिखलाई । इसलिए युद्ध के अन्त में दो तमगों ने उनके हृदयस्थल की शोभा बढाई। साथ ही उनके पद की भी उन्नति हो गई । वे पूरे लेफ्टिनेंट हो गये। कुरोपाटकिन के रणकौशल को देखकर उनके सेना-नायको ने उनकी बड़ी तारीफ़ की। उन्होंने सिफारिश करके उन्हे अन्य देश में युद्ध-विद्या की शिक्षा प्राप्ति के लिए भिजवाया। पहले वे बलिन गये; फिर पेरिस । पेरिस में फ्रांस की घुड़सवार सेना के सुधार मे कुरोपाटकिन ने बहुत सहायता की । इससे मारशल नेकमोहन उन पर बहुत प्रसन्न हुए और 'लीजिन आफ आनर' (Legion of Honour) नामक पदक उनको मिला । कुरोपाटकिन के पहले किसी रूसी अफ़सर को यह पदक न मिला था। जिस समय फांस और पुशिया में युद्ध हो रहा था उस समय कुरोपाटकिन पेरिस में थे। प्रशिया की फ़ौज ने उस समय पेरिस को घेर रखा था। उस समय कुरोपाटकिन ने बहुत तजरिबा हासिल किया। युद्धक्षेत्र में स्वयं जाकर उन्होंने युद्ध-कौशल सीखा। उस समय तक कुरोपाटकिन अल्पवयस्क ही थे। वे अपनी भावी उन्नति के सम्बन्ध में तरह तरह के स्वप्न देख रहे थे कि तुर्किस्तान में लड़ाई छिड़ गई। इसलिए कुरोपाटकिन को रूस लौट जाना पड़ा। खोकन्द के खो से रूस लड़ा और खोकन्द सदैव के लिए रूसी तुर्किस्तान में मिला लिया गया।