पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/२३

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पेरू का प्राचीन सूर्य-मन्दिर / 19 . थी । सूर्य की यह प्रकाण्ड मूर्ति मन्दिर की पश्चिमी दीवार पर थी। मूर्ति बिलकुल सोने की थी। इस मूर्ति से सुवर्ण की प्रकाशमान किरणें चारों ओर फैली रहती थीं। मन्दिर में, इसके सिवा और अनेक देवताओं की भी संकड़ों सुवर्ण-मूर्तियाँ थीं। आभूषणों की तो बात ही नहीं, पूजा और प्रसाद आदि के बड़े-बड़े बर्तन भी सब सोने ही के थे। जिस समय असल सूर्य की दीप्तिमान किरणें सब ओर इस मन्दिर पर पड़ती थी उम समय वह सारा भवन दिव्य प्रकाश और दिव्य प्रभा का पुंज हो जाता था। सूर्य की मनोमोहिनी मूर्ति के नीचे सोने की बहुमूल्य कुरसियों पर पुराने इन्का राजाओं की प्रतिमायें रक्खी थीं। मन्दिर के आँगन में छोटे-छोटे और भी कई मन्दिर थे। इन छोटे मन्दिरों में चन्द्रमा और शुक्र का मन्दिर औरों की अपेक्षा अधिक शोभाशाली था। इन सब मन्दिरों में भी सोने और चाँदी का काम था। बेल, बूटे और चित्रों से कोई स्थान खाली न था। विदेशी लोग इस महा अलौकिक मन्दिर को देखकर चकित होते थे और घण्टों तक एक ही जगह पर स्तब्ध खड़े रहकर, इसकी शोभा और कारीगरी को इकटक देखा करते थे। इस मन्दिर के बनाने में अपरिमित धन लगा था। जब पिजारो ने कजको को अपने अधीन करके उसे लूट लिया तब उसके एक अधिकारी ने लूट के माल में से और कुछ न माँगकर केवल वे छोटी-छोटी कीलें माँगी जिनको जोड़कर इस मन्दिर का नाम दीवारों पर उठाया गया था। उसकी यह प्रार्थना स्वीकार हुई। जब ये सोने की कीलें तोली गईं तब 25 मन निकलीं। इसी से इस मन्दिर की बहुमूल्यता का अनुमान करना चाहिए। हमारे देश में सूर्य के बहुत कम मन्दिर हैं । एक मन्दिर झाँसी के पास, दतिया राज्य के अन्तर्गत, उनाव नामक गाँव में है। उसमें सूर्य की जो मूर्ति है उसका आकार कज़को की मूर्ति से मिलता है । कज़को के इस प्राचीन मन्दिर का चित्र अंगरेज़ी भाषा की एक पुस्तक में प्रकाशित हुआ है। जान पड़ता है, मन्दिर को आँखों से देखकर यह चित्र नहीं उतारा गया। ध्वंस किये जाने पर उसके वर्णन पढ़कर, अटकल से, किसी चित्रकार ने उसे बनाया होगा। - - [मई, 1904 को 'सरस्वती' में प्रकाशित । 'प्राचीन चिह्न' पुस्तक में संकलित।