पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/२३७

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- - जान स्टुअर्ट मिल / 233 लिए अफ़सोस कर रही है, और साक्रेटिस के सिद्धान्नों की शतमुख से प्रशंमा हो रही है। क्राइस्ट के उपदेशों का निन्द्य ममझ कर यहूदियो ने उसे सूली पर चढ़ा दिया। फिर क्यो आधी दुनिया इम निन्दक के चलाये हुए धर्म को मानती है ? बौद्धो ने पकगवार्य को क्या अपने मन का व्यर्थ निन्दक नही समझा था? फिर, बतलाइए यह माग हिन्दुस्तान क्यो उनको शंकर का अवतार मानता है ? जब मैकडो वर्ष वाद-विवाद होने पर भी निन्दा की यथार्थता नही साबित की जा सकती, तव किमी बात को पहले ही से कह देना कि यह हमारी व्यर्थ निन्दा है, अतएव इसे मत प्रकाशित करो, कितनी बड़ी धृष्टता का काम है ? निन्दा-प्रतिबन्धक मत के अनुयायी ही इम धृष्टता-इम अविचार का परिणाम निश्चित करने की कृपा करें । जिन लोगो का यह खयाल है कि 'व्यर्थ निन्दा के प्रकागन को रोकना अनुचित नहीं, वे मदय-हृदय होकर यदि मिल साहब की दलीलो को मुनेंगे और अपनी सर्वजना को जरा देर के लिए अलग रख देंगे तो उनको यह बात अच्छी तरह मालूम हो जायगी कि वे कितनी समझ रखते हैं। निन्दा-प्रतिबन्धक मत के जो पक्षपाती मिल माहव की मूल पुस्ता हो अँगरेजी में पढ़ने के बाद 'व्यर्थ निन्दा' रोकने की चेष्टा करते हैं, उनके अज्ञान, हठ और दुराग्रह की सीमा और भी अधिक दूर-गामिनी है । क्योकि जब मिल के सिद्धान्तो का खण्डन बड़े बड़े तत्त्वदर्शी विद्वानों से भी अच्छी तरह नहीं हो मकना, तव औरों की क्या गिनती है ? परन्तु यदि उन्होने मूल पुस्तक को नही पढ़ा तो अब तो वे कृपा-पूर्वक इस अनुवाद को पढ़े । इससे उनकी समझ में यह बात आ जायगी कि अपनी निन्दा व्यर्थ हो चाहे अव्यर्थ-रोकने की चेष्टा करना मानो इस बात का सबूत देना है कि वह निन्दा झूठ नहीं, बिलकुल सच है । व्यर्थ निन्दा के असर को दूर करने का एक मात्र उपाय यह है कि जब निन्दा प्रकाशित हो ले, तब उसका स-प्रमाण खण्डन किया जाय और दोनों पक्षो के वक्तव्य का फैमला सर्व-माधारण की राय पर छोड़ दिया जाय । ऐसे विषयो मे जन-समुदाय ही जज का काम कर सकता है। उसी की राय मान्य हो मकती है। जो इस उपाय का अवलम्बन नही करते, जो ऐमी वातो को जन-समूह को राय पर नही छोड़ देते, जो अपने मुकद्दमे के आप ही जज बनना चाहते हैं, उनके तुच्छ, हेय और उपेक्ष्य प्रलापो पर समझदार आदमी कभी ध्यान नहीं देते। ऐसे आदमी तब होश में आते हैं जब अपने अहंमानी स्वभाव के कारण अपना सर्वनाश कर लेते है । ईश्वर इस तरह के आदमियों से समाज की रक्षा करे ! । [अगस्त, 1905 में प्रकाशित । 'संकलन' पुस्तक में संकलित। 1. यहाँ द्विवेदीजी ने 'व्यर्थ निन्दा' के सन्दर्भ में जो बातें लिखी है, वह उन पर श्यामसुन्दर दास के द्वारा ऐसा आरोप लगाये जाने के कारण । श्यामसुन्दर दास से हुए उनके विवादों की सामग्रियाँ रचनावली के दूसरे खण्ड में संकलित है।