पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/२४९

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हर्बर्ट स्पेन्सर | 245 सामने सिर झुकाना पड़ता था। पर, खेद की बात है, उसकी क़दर उसी के देश, इंगलैंड में, और देशों की अपेक्षा बहुत कम हुई । मच है, हीरे की क़दर हीरे की खान में कम होती है। स्पेन्सर का मत है कि विज्ञान पढ़ने से मनुष्य अधाम्मिक नही होता। विज्ञान से धर्मनिष्ठा अधिक बढ़ती है । जो लोग ऐमा नहीं समझते उन्होंने विज्ञान की महिमा को जाना ही नही । इस विषय पर उसने 'शिक्षा' नाम की अपनी पुस्तक में बड़ी ही विज्ञता- पूर्ण बहम की है । उसने लिखा है कि जरा-जरा मी बातों पर वाद-विवाद करके व्यर्थ समय नष्ट करना और सृष्टि-रचना में परमेश्वर ने जो अगाध चातुर्य दिखलाया है उस पर ज़रा भी विचार न करना बड़े ही आश्चर्य की बात है । परन्तु पीछे उसका मत कुछ और ही तरह का हो गया था । जिस स्पेन्सर ने सृष्टि-सम्बन्धिनी एक 'अगम्य, अमर्याद, और मर्वव्यापक शक्ति' की महिमा गाई उसी ने "विश्वकर्मा, जगन्नायक और सर्व- शक्तिमान ईश्वर' की अपने समाज-घटना-शास्त्र में कड़ी समालोचना की। यह शायद धर्मश्रद्धा में उसकी अशक्ति का कारण हो। क्योंकि धर्म-विषयक बातों में श्रद्धा ही प्रधान है। स्पेन्मर ने पचास-माठ वर्ष तक अविश्रान्त ग्रन्थ-रचना की। उसके ग्रन्थो को पढ़कर संसार के सुशिक्षित लोगो के विचारों में खूब फेर-फार हो रहे हैं । आशा है कि इम फेर-फार के कारण सामारिक जनों का कल्याण होगा । स्पेन्सर का विद्याभ्यास दीर्घ, ज्ञान-भाण्डार अगाध और परिश्रम अप्रतिहत था। वह अत्यन्त कर्तव्यनिष्ठ, दृढ़-निश्चय और निर्लोभी था। उसके समान तत्त्वज्ञानी योरप में वहुत कम हुए हैं। किसी-किमी का मत है कि तत्त्वज्ञानियों में अरिस्टाटल, बेकन और डारविन ही की उपमा उससे थोड़ी- बहुत दी जा सकती है। ईश्वर करे इस महादार्शनिक की पुस्तको का अनुवाद इस देश की भाषाओ में हो जाय जिससे इस बूढ़े वेदान्ती भारतवर्ष के निवासियों को भी उसके सिद्धान्त ममझने में सुभीता हो । [जुलाई, 1906 को 'सरस्वती' में प्रकाशित । 'विदेशी विद्वान्' पुस्तक में संकलित।]