पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/२५९

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फ़ारस के शाह मुजफ्फ़रुद्दीन / 255 रही और अमीराना पोशाक पहने हुए उसके सवार गोते खाने लगे । शाह की कई वेगमें थीं। उनमें से एक की बहन से आपने नई शादी करनी चाही। इस पर सब बेगमें विगड़ उठीं। उन्होंने गड़बड़ मचाया और कहा कि यदि यह शादी होगी तो हम अँगरेजी ध्वजा के नीचे चली जायगी और नेहगन के अँगरेज़ एलची के यहाँ जा रहेंगी। यदि ऐमा होता तो अँगरेज़ एलची बड़े ही अममंजम में पड़ता । परन्तु खैर हुई, ऐमा नहीं हुआ । तथापि बुड्ढे शाह ने शादी करके छोड़ा। कन्धार के एक अमीर के भडकाने से शाह नसीरुद्दीन ने 1856 ईसवी में अफ़ग़ानिस्तान पर चढाई कर दी और हिगत दखल कर लिया। इस कारण अँगरेजो को फारम पर सेना भेजनी पड़ी। इम सेना ने पहुंचते पहुँचते कर्क का टापू और शहर ले लिया; रिशिर के किले पर भी कब्जा कर लिया। फिर अँगरेजी सेना शीराज़ की ओर बढ़ी और खुशाब में फारम वालों को उसने एक शिकस्त दी। इतने ही में मन्धि हो गई । नव से अंगरेज़ प्रभुओ की प्रभुता फ़ाग्म की वाडी में बराबर बनी हुई है । इमको लाई कर्जन ने नई कर दिया है। लड़ाई के बाद ही कराची से तेहरान, थल-मार्ग मे, विलायत को तार लगाया गया। वह बराबर काम दे रहा है। उसके द्वारा एक घंटे मे भी कम समय में लन्दन और कलकत्ते के बीच, खबरें आती जाती हैं ! शाह नमीरउद्दीन अपनी मौत से नहीं मरे । उनको एक हत्यारे ने मार डाला था। शाह मुजफ्फ़रुद्दीन पर भी एक दुष्ट ने गोली छोड़ी थी; परन्तु आप बच गये और वह हत्यारा पकड़ा गया । यह उस समय की बात है जब शाह मुजफ्फ़रुद्दीन इंगलैंड गये थे। लन्दन की एक गली में यह हादसा हुआ। अपने पूर्वजों के समान शिकारी थे । साहस और वीरता भी आपमें खूब थी। किमी किसी का मत है कि शाह में अपना राज्य संभालने की यथोचित योग्यता नही थी; शारीरिक शक्ति भी उनमें कुछ कम थी; बुद्धि भी उनकी तीव्र न थी । परन्तु लार्ड कर्जन इस राय के ख़िलाफ़ है । उन्होंने फारस में बहुत दिनों तक सैर की है और एक किताब भी उस पर लिखी है । इस किताब का बड़ा मान है। लाट साहब ने इस किताब में लिखा है-"शाह समझदार नरेश है; उनकी बुद्धि भी मन्द नहीं; वे इतिहास में पूरे दक्ष हैं; वनस्पति-शास्त्र का भी उन्हे ज्ञान है, स्वभाव भी उनका बुरा नहीं । राज्य के कामों में जो उनको जरा कम अनुभव है, उसका कारण है । शाह नसीरुद्दीन ने उनको राजधानी से दूर एक ऐसे सूबे का गवर्नर जनरल बनाया था जहाँ उनको राज्य के गुरुतर कार्यों में हाथ डालने या अपनी राय देने या और कुछ करने का अवसर ही नहीं मिला । फिर उनको इन बातो की विज्ञता कैसे प्राप्त होती ? उनको निज के खर्च के लिए जो कुछ मिलता था वह भी काफ़ी न था: उनको बहुधा कर्ज लेना पड़ता था। 40 वर्ष की उम्र तक वे इसी दशा में, अजर बैजान में, पड़े रहे । इसलिए यदि उनके स्वभाव और उनकी समझ में कोई दोष पाये जायें तो उन्हें स्वाभाविक नहीं समझना चाहिए।" शाह मुज़फ़्फ़रुद्दीन योरप के नरेशों की राजनीति का ज्ञान प्राप्त करने की चेष्टा किया करते थे। कोई भी योरप का विद्वान् अथवा अधिकारी जो वहाँ जाता था उसकी वे खातिर करते थे और उसके अनेक विषयों पर वार्तालाप भी करते थे। दस ग्यारह शाह भी बड़े 1