पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/२७६

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272 / महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली 'काशांशुका' और 'आपयशालिरुचिरा' का अर्थ आपने किया है--"with robe of sugarcanc and ripening rics-अर्थात् ईव और पकते हुए धान जिसकी पोशाक हैं । यह अर्थ वब रहा। आचार्यों के योग्य ही हुआ। ईव वेचारी का तो कही जिक्र ही नहीं । न मालूम साहब ने उसे यहाँ पापा । शायद आपकी पुस्तक में 'इक्ष्वंशुका' पाठ रहा हो । पर सम्भावना कम है। क्योकि यहां पर कालिदाम का मतलब काम के सफ़ेद फूलों ही से है। इस बात को मर्ग के अन्त मे उन्होंने- 'विकसितनवकाशश्वेतवासो वमाना"-कहकर स्पष्ट कर दिया है। शरद् ऋतु लगते ही कास फूलता है । यह लोक-प्रसिद्ध बात है। उमी को लक्ष्य करके कालिदाम ने लिखा है । सो कास को आपने ईख कह दिया । अच्छा, इसे हम पाठान्तर माने लेते हैं। पर पकने हुए धान की पोशाक से क्या मतलब ? कास या ईल की गोशाक तो शरद् को पहनाई जा चुकी, अब धान की पोशाक की क्या जरूरत ? क्या दो गोशाके एक ही माथ पहनाई जायेगी ? अथवा क्या एक ही पोशाक दो रंग की होगी ? कवि का मतलब तो कुछ और ही मालूम होता है। उमका अभिप्राय तो धानों के खेतो के रग वा रुचिरता से जान पड़ता है। जब धान के खेन पकने को होते हैं नव उनमें पीलापन आ जाता है। वह पीलापन कवियों को है पमन्द । इसी से वे स्त्रियों के वर्ण की अमा चम्मक, चामीकर और आपक्वणालि से देते है । वही बात यहाँ भी है। शरन्तववधू की पतली देह के रग की रुचिरना बतलाने के लिए कालिदास के पके हुए धान के खेतो का स्मरण किया है। मो उसका अर्थ मुग्धानल साहब ने कुछ का कुछ करके नवोढा शरद् को धान के पयाल की पोशाक पहना दी । यह भी शायद आपकी पुस्तक में पाठान्तर होने का फल हो । पर जब तक यह न मालूम हो कि आपकी पुस्तक में क्या लिया है तब तक आप हमे आलोचना के लिए क्षमा करे। आपकी पुस्तक में इस तरह की तो अनेक भूले हैं, ही पर और तरह की भी बहुत हैं। उनका फिर कभी विचार करेंगे । इस बार इतना ही सही। मुनते हैं मुग्धानलाचार्य महाशय छोटे मोटे आदमियों से पत्र-व्यवहार करना नहीं पसन्द करते । यदि कोई वैसा आदमी आपको पत्र भेजे या आपसे कुछ पूछे तो आप उमका उत्तर ही नहीं देते । और, अपना फ़ोटो तो कभी किमी ऐसे-वैसे को देते ही नहो । शायद यही कारण है जो आज तक आपका चित्र अच्छे से अच्छे भारतवर्षीय सामयिक पत्रों में छपा हुआ नहीं देखने में आया। ऐसी बातें या तो गर्व से हो सकती हैं या शालीनता अथवा संकोच से । आपके वेद-विद्या-गुरु भट्ट मोक्षमूलर में ये बातें न थी। वे हमारे सदृश छोटे आदमियों से भी पत्र-व्यवहार करते थे। उन्हें यदि कोई संस्कृत में पव लिखता था तो के उत्तर में साफ कह देते थे कि भाई, हमें संस्कृत लिखने का अभ्यास नही। वे बड़े ही सच्चे, साधु-स्वभाव और भारतहितैषी थे। हमने पहले पहल उन्हें एक छोटी सी पुस्तक भेजी। उसके पहुंचते ही आपने अपनी एक पुस्तक हमें भेज दी और साथ ही अपना हस्ताक्षरित फोटो भी भेजा । इस बात को कोई 18 वर्ष हुए। [जून, 1908 को 'सरस्वती' में प्रकाशित । 'विदेशी-विद्वान' में संकलित। म.हि...4