पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/३०४

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मक्ति फौज के अधिष्ठाता जनरल बथ जनरल बुथ संसार के उन महान पुरुषों में से थे जिन्हें उन्नीसवी शताब्दी ने जन्म दिया। वर्तमान समय में, जबकि संसार में चारों ओर पदार्थ-विज्ञान की महिमा के गीत गाये जा रहे हैं और लोग भौतिक उन्नति के मैदान में कदम बढ़ाये जाना ही अपना कर्तव्य समझते हैं, जनरल बूथ ने, अपने बुद्धि-बल से नहीं क्योंकि उनकी बुद्धि में कोई विशेषता न थी-किन्तु अपने सुदृढ़ चरित-बल से, मुक्ति-फ़ौज नाम की संसार-व्यापिनी धाम्मिक संस्था को जन्म देकर तथा उसे अच्छी तरह चला कर ऐसा महान काम किया जिससे उनके चरित की महत्ता अच्छी तरह मिद्ध होती है । उन्हें अपने इस काम में बड़ी बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, कटुवचन और गालियाँ सुननी पड़ी, और उनके सहकारियो को जुरमाना देना तथा जेल तक जाना पड़ा; परन्तु वे अपने उद्देश मे कभी न टले । अपने साथियों सहित-और खूबी तो यह थी कि उनके साथी भी उन्हीं के सदृश दृढ़ मिले थे। वे अपना काम करते ही गये; और, अन्त में, फल यह हुआ कि सारी कठिनाइयों ने उनके आगे सिर झुका दिया। जो उनका पहले अपमान करते थे वही उनका आदर करने लगे। बड़े बड़े राजा-महाराजों तक ने उनका सम्मान किया और दीन-हीन हृदय के तो वे स्वयं ही राजा बन गये । बूथ महाशय का जन्म, 1829 में, नारिंघम नगर में हुआ था। उनके पिता एक गिरजाघर में काम करते थे । 'उनके पिता का सम्बन्ध था तो गिरजाघर से, परन्तु वे परलोक बनाने से इस लोक का बनाना अधिक अच्छा समझते थे। इसलिए वे व्यापार द्वारा धन एकत्र करने की चिन्ता में अधिक रहते थे । वे थे तो विशेष शिक्षित नही, परन्तु हिमाब-किताब रखना बहुत अच्छा जानते थे। पिता का यह गुण पुत्र को भी प्राप्त हुआ। जनरल बूथ भी बड़े ही हिसावदां निकले । अन्य गुण उन्हें अपनी माता से मिले। उनकी माता बड़ी ही सुशीला और धामिक स्त्री थी। माता और पुत्र में प्रेम भी बहुत था। एक दूसरे को देख कर जीते थे। उनका हृदय बड़ा ही उदार था । वे दीन-हीन लोगो के दुःख न देख मकती थी। उनका विश्वास था कि कोई मनुष्य, चाहे कितना ही पतित क्यों न हो, सद्व्यवहार मे वह अच्छा बनाया जा सकता है। उन्होंने यह विचार बचपन ही में बूथ के हृदय में कूट कूट कर भर दिया था। माता की इस शिक्षा का फल यह हुआ कि पुत्र ने बड़े होने पर मुक्ति फ़ौज द्वारा पतितों का उद्धार करके इस विचार की मत्यता अच्छी तरह सिद्ध कर दी। बूथ का लड़कपन ग़रीबी में कटा। एक छोटी सी पाठशाला में थोड़ा बहुत पढ़ लिख कर, 1850 में, वे भी पादड़ी हो गये। 1861 में, उन्होंने अपने इस पद को त्याग दिया। इस बीच में वे अपना व्याह कर चुके थे और उनके चार सन्तानें भी हो गई थीं। वे सपत्नीक नगर नगर धर्मोपदेश देते फिरे। अन्त में, 1864 में, वे लन्दन । ।