पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/४१

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अफ़ग़ानिस्तान में बौद्धकालीन चिह्न / 37 वैभव की इतनी ख्याति थी वह अब इस समय एक छोटा सा गाँव मात्र रह गया है। अथवा यह कहना चाहिए कि उसका नो मर्वथा नाश हो चुका। उसकी जगह पर कुछ घरों का एक नया पुरवा या खेरा आबाद है । संघारामों और विहारों की इमारतें नष्ट- भ्रष्ट होकर टीलों में परिणत हो गई हैं । वहाँ अब मिट्टी, बालू और कंकड़ों के सिवा और कुछ भी शेष नही । स्तूपों में जो मूर्तियाँ और जो कारीगरी थी वह भी नामशेप हो गई है। बहुत ढूंढने से कही कहीं कारीगरी और रंग-आमेजी के कुछ चिह्न देखने को मिल जाते हैं। जिस ममय हुएन-संग भारत आया था उस समय गान्धार में वौद्ध धर्म का ह्राम हो रहा था । गान्धार की राजधानी पुरुषपुर, अर्थात् वर्तमान पेशावर थी। पुः पपुर, नगरहार और हिद्दा, ये तीनो नगर और उनके पास के प्रान्त कपिणा के साम्राज्य के अन्तर्गत थे । कपिणा का राजराजेश्वर क्षत्रिय था। वह बौद्ध धर्म का अनुयायी था। हर साल वह 18 फुट ऊँची चाँदी की एक बुद्ध-मूर्ति तैयार कराकर उसका पूजन करता था। इस सम्बन्ध में एक बहुत बड़ा उत्सव होता था और मोक्षमहापरिषद् नाम की एक सभा का अधिवेशन किया जाता था। उस समय सम्राट् दीन-दुखियों को दान देता और हर तरह से उसकी सहायता करता था। कपिशा के विस्तृत राज्य मे उम ममय कोई एक सौ विहार थे। उनमे 6 हजार बौद्ध श्रमण रहते थे। स्तूपो और सघारामों की इमारतें बहुत विशाल थी। वे इतनी ऊँची थी कि दूर से वे देव पड़ती थी। उनके मिया, हिन्दुओ के भी सैकड़ो मठ और मन्दिर थे। बौद्ध काल मे काबुल मे भी बौद्धो के कितने ही स्तूप और विहार थे । पर वे सब अब नामनिःशेप हो गये है। उनकी जगह पर अब केवल खंडहरों के कुछ चिह्न और धुस्स-मात्र रह गये है । हाँ, एक बहुत ऊँचा स्तम्भ अब तक खड़ा हुआ है। न वह भूकम्पों ही से भूमिसात् हुआ, न उम पर भवनभंजकों और मूर्तिसंहारकों ही की कुदालो का कुछ बम चल सका। हुएनसंग जिस ममय बामियान मे आया था उस समय वहाँ बौद्ध धर्म अज्जितावस्था में था। वहाँ के निवासी बड़े ही धर्मनिष्ठ थे । वे विशेष करके लोकोत्तर- वादी सम्प्रदाय के थे । दस विहार और कोई एक हजार श्रमण, उस समय, वहाँ थे । बुद्ध की एक प्रस्तरमूर्ति, 150 फुट ऊँची और उनसे कुछ दूरी पर धातु की दूसरी मूर्ति 100 फुट ऊँची, बड़ी आसमान से वातें करती थी। छोटी छोटी मूर्तियाँ तो और भी कितनी ही श्री। 1879 ईसवी के अफ़ग़ान-युद्ध के समय जनरल के० ने जो मूर्ति वहाँ देखी थी उसका वर्णन उन्होंने भी आने, एक लेख में किया है । यह मूर्ति वहाँ अब तक विद्यमान है। बामियान के निवासी उसे अजदहा कहते हैं । उन्होने यह कल्पना कर ली है कि किसी मुसलमान फ़क़ीर ने इस अज़दहे को मारा था । उसी की यह यादगार है । बौद्धों के ज़माने मे जो बामियान धन-लक्ष्मी का विलास-स्थान था और जहाँ हजारों कोस दूर से यात्रियों के जत्थे आया करते थे, उसे, ईसा की आठवीं सदी में; अरबों ने उजाड़ दिया । अनन्त बौद्ध भिक्षुओं को उन्होंने तलवार के घाट उतार दिया। उनकी