पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/४१४

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11 410 / महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली कितनी दूर है, किस तरफ़ है; वहाँ खाने को कुछ मिलेगा या नहीं; रास्ता कैसा है; चोरों का डर तो नहीं । इन प्रश्नो का उत्तर उसने संज्ञाओं ही से दिया। परंतु ऐसी योग्यता से दिया कि उनको समझने में ज़रा भी कठिनाई नहीं पड़ी। 'गेयू और इटूरी नदियो के बीच में ये छोटे आकार के जंगली अधिकता से रहते है । ये बड़े ही प्रवीण शिकारी होते है। जिस जंगल में ये रहते है, उसे थोड़े ही दिनो मे ये पशु-पक्षी-हीन कर देते हैं । अतएव शीघ्र ही इन्हें एक जगह छोड़कर दूसरी को, और दूसरी छोड़कर तीसरी को, जाना पड़ता है । इनके भाले बड़े ही भयंकर होते है । उनमें जो लोहे का फल लगा रहता है वह बहुत लंबा और तेज होता है। इनका मुख्य शस्त्र धनुर्बाण है। इनके बाणो की नोके सैकड़ों तरह की होती है । इन बाणों से ये लोग हाथी मार डालते है और सैकड़ों मन हाथीदांत इकट्ठा करके केले, तंबाकू, आलू, भाले और बाणों के बदले दे डालते हैं । ये अपने बाणों की नोको मे एक बडा ही भीपण विष लगाते है। इनके वाण की नोक का स्पर्श रुधिर से हो जाने पर कोई जीव जीता नहीं रह सकता। बाण लगते ही आदमी बेहोश हो जाता है; कलेजा धड़कने लगता है, पमीने की धारा छूटती है। यह होते ही होते शीघ्र ही प्राणवायु निकल जाता है । एक मनुष्य की भुजा मे केवल आलपीन की नोक के बगबर छेद हो गया था । इतने ही से वह एक क्षण भर में मर गया। एक मनुष्य को मृत्यु सवा घंटे में हो गई। एक स्त्री को लोग उठाकर जब तक सौ क़दम दूर ले जायं तब तक वह निर्जीव हो गई । एक मनुष्य तीन घंटे में और एक मौ घंटे में मग । विप जितना ही ताजा होता है उतनी ही शीव्र मन्यु होती है। ऐसे ज्वलत कालकूट विप से यदि शेर, हाथी और गेडे मरकर भूमि पर लोट जायँ तो क्या आश्चर्य । ईश्वर ने इन अशक्त और पूर्वाकार जगली मनुष्यो को ऐसे विकराल वाण चलाने का ज्ञान देकर उनकी अशक्तता और वर्वाकृति की न्यूनता को अपेक्षा से अधिक पूग कर दिया . [फरवरी, 1904 को 'सरस्वती' में प्रकाशित । 'वैचित्र्य-चित्रण' में संकलित ।] । [2] स्टैनली साहब का लिखा हुआ वृनांत बड़ा कौतूहलजनक है । उनके लेख का कुछ और भी अंश नीचे दिया जाता है। उसे भी उन्ही के मुख से कहा गया समझिए- "हमने अफ़रीका महादेश के समस्त पर्वत, मरुभूमि, वन इत्यादि में बहुत वर्षों तक भ्रमण करने के बाद जो अभिज्ञता प्राप्त की है उसे अपने एक ग्रंथ में प्रकाशित कर चुके हैं। अफ़रीका के बौनो के सबध मे हमारे मन में पहले साधारणतः कई प्रश्न उठा करते थे । ये बौन सचमुच मनुष्य श्रेणी के हैं या नहीं ? ये जो कुछ देखते हैं, उसे प्रकाशित कर सकते है या नहीं ? मनुष्यो की तरह इनमें युक्ति, तर्क और चिता-शक्ति है या नही ? अभिजता प्राप्त करने पर हम इस सिद्धांत पर पहुँचे है कि बौनो मे और हममें कोई विशेष भेद नही। जैसे हम विचार और वार्तालाप करते है वैसे ही वे भी सोचते, विचारते और बातचीत करते हैं। डारविन साहब कुछ ही क्यों