पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/४४९

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भारतवर्ष का वैदेशिक संसर्ग/445 कि पेरिस वास्तव में भावी सभ्यता का निर्माण-गृह है । अतएव हमारे देश के विद्यार्थियों को चाहिए कि घर ही पर फ्रेंच और जर्मन भाषायें सीख कर इन देशों को जायें । अब केवल इंगलैंड जाने से विशेष लाभ नहीं। भारतवर्ष के अल्पज ग्रेजुयटों का यह ख्याल बिल्कुल गलत है कि इंगलैंड ही उन्नति की जननी है। वास्तव में इंगलैंड बड़ा ही फिमड्डी देश है । उन्नति करने की उसकी चाल बहुत ही धीमी और आलसियों की मी अतएव फ्रेंच और जर्मन भाषायें सीखना हम लोगों के लिए बहुत ही लाभदायक है। परन्तु बड़े अफ़मोम की बात है कि ऐमी उपयोगी भाषाओं को न सीख कर हम अपना समय फारमी पढ़ने में व्यर्थ गवाते हैं। भला आज-कल के समय में फ़ारसी भारतवामियों को क्या लाभ पहुंचा सकती है ? विदेश जाने वाले विद्यार्थियों को संस्कृत सीखने की भी कुछ विशेष आवश्यकता नही। हाँ, अपनी मातृ-भाषा सीखना सबका परम कर्तव्य है। अतएव भारत माता के नवयुवक सपूत यदि अपने देश की उन्ननि कग्ना चाहते हैं और उनको यूरोपियन देशों के समकक्ष बनाना चाहते हैं तो उन्हें मब ओर से चित्त उठा कर फ्रेंच और जर्मन सीखना चाहिए। इन्ही भाषाओ की सहायता से उन्हें उन्नति के रहस्य मालूम होगे। (2) यूरोपियन विश्वविद्यालयो में विद्याध्ययन : इस प्रकार अपने देश ही में विदेशी भाषायें मीखकर भारतीय विद्यार्थियों को फाम, जर्मनी और स्विट्जरलैंड जाना चाहिए। वहाँ विद्याध्ययन करके वे जितना लाभ उठा सकेगे उतना इंगलैंड और अमेरिका में नहीं। यही कारण है कि ढेर के ढेर तुर्क, मिसरी, चीनी और जापानी इन देशों के विश्वविद्यालयों में पढ़ने जाते है। (3) भारतवासियों के सामाजिक जीवन में सुधार : जब तक भारतवासी उस तरह जीवन व्यतीत करना न सीखेंगे जिस तरह कि ससार के अन्य लोग व्यतीत करते है तब तक वे न तो संसार का ज्ञान ही प्राप्त कर सकेगे और न उन्नति ही कर सकेगे । हम लोग जब यूरोप जाते है तब यूरोपियनो के घरो में अच्छी तरह ठहर सकते हैं । पर जब कोई यूरोपियन भारत मे आता है तब हम उनको अपने घर में नहीं ठहरा सकते। इसका कारण हमारी पुरानी रीति-नीति है। इस रीति-नीति को बहुत लोग अच्छा समझते है और कहते हैं कि वह हमारी जातीयता का चिह्न है । पर वास्तव में रस्मोरिवाज हम लोगो की उन्नति में प्रधान बाधक हैं। इनके रहते भारत और यूरोप का सम्बन्ध नही हो सकता। भारतवर्ष के लोगों को चाहिए कि अब वे हरद्वार या जगन्नाथपुरी जाने के बदले यूरोप की तीर्थ यात्रा किया करें । अब देन की चहारदीवारी के भीतर कूपमण्डूकवत् बन्द रहने तथा प्राचीनता की पूजा करते रहने का समय नही। संसार के अन्य देश उन्नति की दौड़ में बहुत आगे बढ़ गये है। यदि भारतवासी अपने आलस्य को त्यागकर उनके बराबर पहुंचने की चेष्टा न करेगे तो कोई दिन आवेगा जब भारत का नाम संसार मे मिट जावेगा । अतएव हम लोगो को चाहिए कि अपनी फिसड्डीपन का अभिमान और पुरानी लकीर पोटने की चाल छोड़ दें और आगे बढ़ी हुई जातियों से मिलजुल कर उन कारणों को जान लें जिनसे वे आगे बढ़ी हैं। यह तभी हो सकता है जब हम