पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/४५०

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446 / महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली यूरोप जायं, और वहाँ वालों से खूब घनिष्ठ सम्बन्ध पैदा करें, और उस काम को तीर्थ- यात्रा से बढ़कर पवित्र और महत्त्वपूर्ण समझें । जापानियों की उन्नति भी इसी प्रकार हुई है। उन्होंने जिन प्राचीन रीतियों को हानिकारक समझा उन्हें तुरन्त त्याग दिया और लाभदायक नई रीतियों के ग्रहण करने में उन्होंने कभी संकोच नहीं किया। पुरानी सभ्यता के गन्दे कपड़ों को उतार कर और नई सभ्यता के स्वच्छ और सुन्दर वस्त्रों को धारण करके जापानियों ने यूरोपियनों से मेलजोल बढ़ाया। इस प्रकार वे धीरे- धीरे उन्नति के शिखर पर पहुँच गए। अतएव यदि हमारे देशवासी भी जापान का सा सम्मान पाना चाहते हैं तो उनको भी उन्हीं उपायों का अवलम्बन करना चाहिए जिन्हें जापानियों ने किया था। बिना पुरानी हानिकारक रीतियों को त्यागे और यूरोपियनों से मेलजोल बढ़ाये भारत की उन्नति नहीं हो सकती। (4) समाज-तत्त्व को शिक्षा : हमारे देश की उन्नति के लिए यह बहुत आवश्यक है कि लोग आधुनिक काल के सामाजिक आदर्शों और, आन्दोलनों का ज्ञान प्राप्त करें। हमारे देशवासी अध्यात्म विद्या और धर्म-शास्त्र में तो बड़े निपुण हैं; पर समाज-तत्त्व के विषय में वे कुछ नहीं जानते । उन्हें जानना चाहिए कि अब आध्यात्मिक और धाम्मिक झगड़े का समय नहीं रहा। अब हमें उन उन्नतिशील और गम्भीर भावपूर्ण विचारों का अध्ययन करना चाहिये जो वर्तमान सभ्य संसार में बड़े वेग से अपना काम कर रहे है। ये विचार ही भारत के उस रोग के लिए ओषधि का काम करेंगे जो उसे दिन पर दिन दुर्बल और दीन हीन बना रहे हैं । भारतवर्ष उस समय तक उन्नति नहीं कर सकता जब तक कि वह यूरोपियन शिक्षा को पूर्ण रूप से ग्रहण न कर लेगा। अतएव प्रत्येक भारत- संतान का यह परम कर्तव्य है कि वह पुराने विचारों और रीतियों को त्याग कर नवीन विचारों और रीतियों को ग्रहण करे। इसी में देश का कल्याण है। महाशय हरदयाल जी के बताये हुए यही चार अनमोल उपाय हैं। [जुलाई, 1913 को 'सरस्वती' में प्रकाशित । 'अतीत-स्मृति' में संकलित।]