पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/४७१

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यूरोप के इतिहास से सीखने योग्य बातें /467 नई पद्धति के अनुसार राज्य का प्रबन्ध अब राष्ट्रीय सभा को एक बहुत बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ा-उमको इस बात का निश्चय करना पड़ा कि किन नियमों के अनुमार राज्य का प्रवन्ध किया जाय। राष्ट्रीय उन्नति की शाब्दिक चर्चा करना, बडे बड़े शब्दों के द्वारा अपना भाव प्रकट करना, मन को लुभाने वाली वक्तृता करना, इत्यादि बातें महज हैं । इमी प्रकार किमी प्राचीन संस्था या पद्धति को उठा देने का प्रस्ताव 'पास' करना भी बहुत सहज बात है। परन्तु उमके स्थान पर नई संस्था या पद्धति स्थापित करना और उसके अनुमार बर्ताव करना उतना सहज नहीं। इम बात का उल्लेख ऊपर किया गया है कि मन् ! 789 की चौथी अगस्त को राष्ट्रीय सभा ने अपने देश की प्राचीन राज्यपद्धति को उठा देने का प्रस्ताव किया। उसके बाद उसको नूतन राज्यपद्धति स्थापन करने में, धन् 1791 के मितम्बर तक, तेईस महीने लग गये ! इतने अरसे में राज्य का चंदेरोजा बन्दोवस्त कर लिया गया था । यद्यपि प्राचीन संस्थाओं को तोड़ देने का निश्चय किया गया था, तथापि वे एक या दो दिन में तोड़ी न जा सकी । उनका प्रभाव कुछ न कुछ बना ही रहा। जो नई संस्थायें स्थापित की गई थीं उनका कार्य अब तक आरम्भ न हुआ था। ऐसी अवस्था में वहाँ एक प्रकार का अन्धेर ही मा हो गया था । राष्ट्रीय मभा चारों ओर कठिनाइयों से घिर गई थी। यद्यपि राजा से किसी विशेष प्रकार का भय न था, तथापि रानी और उसके दरबारी लोग, तथा प्राचीन समय के बड़े बडे सरदार, रईस, ज़मींदार, धर्माधिकाफी इत्यादि राज्यक्रान्ति के कार्य में बाधा डालते थे। राष्ट्रीय सभा में इन लोगो की संख्या एक तृतीयांश से कम न थी। इसके सिवा सर्वसाधारण जन अत्यन्त दरिद्रावस्था में थे, विशेषतः पेरिस शहर के निवासी। राष्ट्रीय सभा के लिए वे बहुत भयकारक थे। अब तक लोग इस आशा पर चुपचाप बैठे रहे थे कि राज्यक्रान्ति से हम लोगों को पेट भर भोजन मिलेगा। परन्तु उन्हें लोगों को पेट भर भोजन मिलेगा । परन्तु उन्हें शीघ्र ही निराश होना पड़ा। भूखे आदमियों की निराशा बहुत भयानक होती है । उन लोगों को बलवा करने के सिवा और कोई उपाय नहीं सूझता। बस्टाइल किले पर हमला करने तधा बरसेलीस से राजा-रानी को कैद करके पेरिस मे लाने के समय उनके बलवे सफल हुए थे। इससे वे लोग और भी उत्साहित हो रहे थे। उनको विश्वाम था कि हम अपनी बलवाई शक्ति के ज़ोर से राष्ट्रीय सभा के द्वारा मनमाना काम करा लेंगे। इन बलवाइयों को समझाने और शान्त करने के लिए बहुत ही कम समय मिलता था। पर लिखे हुए दो बाहरी विघ्नों के सिवा सभा के भीतर भी बहुत से बिघ्न हो रहे थे। राष्ट्रीय सभा के सारे सभ्य एक मत के न थे। भिन्न भिन्न मतों के कारण उन लोगों में भी फूट थी। कुछ लोग राज्यक्रान्ति ही के विरुद्ध थे, कुछ लोग नरम पक्ष के थे,. जो राज्यप्रबन्ध में एकदम परिवर्तन करना पसन्द न करते थे; कुछ लोग प्राचीन पद्धति