पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/४७६

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472/ महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली हक़दार वर्गों को प्रचण्ड शक्ति के विरुद्ध सफलतापूर्वक लड़ सके। और, इन्ही नूतन विचारों की बदौलत वे लोग योरप की सम्मिलित सेना को पीछे हटा कर अपने देश की रक्षा कर सके। तात्पर्य यह कि, जिन विचारों अथवा भावों से मनुष्य जाति का (किमी विशेष व्यक्ति, वर्ग या श्रेणी का नहीं) कल्याण और हित होता है उन विचारों या भावों में अद्भुत मामर्थ्य होता है--उनमें विलक्षण कार्यक्षमता होती है। जब राज्य के प्रबन्ध से केवल विशिष्ट व्यक्तियों और वर्गों ही का हित होता है- सर्व-साधारण जन-समुह की कोई विशेष उन्नति नही होती -तब राज्य-प्रवन्ध का बाह्य आडम्बर (वह कितना ही चित्ताकर्षक क्यों न हो) बहुत समय तक नहीं रह सकता। देखिए, चौदहवें लुई के जमाने में फ्रेंच सरकार का दबदबा सारे यूरोप में था। परन्तु उम समय के (उसके पहले और बाद भी) फ्रेंच सरकार के राज्यप्रवन्ध में सर्व-साधारण लोग शामिल न थे। फ्रांस की तत्कालीन राजसत्ता ने सारे देश की संपनि, वैभव और बुद्धि को अपने ही प्रभाव की वृद्धि और उन्नति में लगा दिया था। सारे सरदार राजा की खुशामद करने में लगे थे; देश की सारी सेना राजसत्ता की रक्षा और उन्ननि में लगी हुई थी; राष्ट्र की मारी मात्ति गज-दरबार और राज-वैभव का ठाट बाट कायम रखने में खर्च होती थी; धर्मोपदेशक केवल बाह्य आचारो के रक्षक तथा दाम्भिक गुरु बन गये थे; बुद्धिमान् तथा शिक्षित लोग राजसत्ता के दाम हो गये थे और मर्व-माधारण जन राजा के सुख तथा ऐश्वर्य की वृद्धि करने वाले केवल यन्त्र से बन रहे थे । तात्पर्य यह कि केवल राजसत्ता ही उस समय की 'सरकार' थी। किमी को स्वाधीन विचार करने, राष्ट्रीय हित की चिन्ता करने या देश की उन्नति करने का हक न था। जो कुछ किया जाता था वह राजा ही की ओर मे; और, वह भी सिर्फ राजसत्ता के हित के लिए। इम प्रकार की स्वार्थनीति चिरस्थायिनी नहीं हो सकती। यही कारण जो देश में क्रान्तिकारक विचारों का उदय होते ही फ्रांस की प्राचीन सामाजिक और राजनैतिक पद्धति अल्प समय ही में नष्ट हो गई। प्राचीन संस्थाओ का नाश और नई संस्थाओं का स्थापन सहज काम है। परन्तु नई संस्थाओं के द्वाग काम करना सहज नहीं । नूतन विचारों की जागृति होते ही फ्रांस में यह बात मब लोगो को मालूम हो गई कि देश की उन्नति के लिए किन किन बातो की आवश्यकता है। उन्होने भली भांति जान लिया कि देश की सर्वांगीण उन्नति होने के लिए राज्य का प्रबन्ध उत्तम होना चाहिए (राज्य-प्रबन्ध की पद्धति में अच्छी शक्ति हो, परन्तु वह अन्यायी और अमर्यादित न हो); स्वाधीन भावों की उत्पत्ति होनी चाहिए, न्याय की दृष्टि से मब आदमी ममान होने चाहिए (मामाजिक समता होनी चाहिए.); सब आदमियों में भ्रातृभाव होना चाहिए; और राष्ट्रीय नीतिमत्ता ऐसी होनी चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति राष्ट्रीय भावों के अनुसार आचरण कर मके । ये सव बातें लेखको और वक्ताओं के लिए तो बहुत मनोहारिणी हैं; परन्तु उनके अनुमार काम करना बहुत कठिन हैं । यह कठिन काम लेखकों के निबन्धों से, या वक्ताओं की वक्तृताओं से, या नियामक मभाओं के प्रस्तावित नियमों से कैसे हो सकता है ! फ्रांस के राज्य-क्रान्तिकारकों ने अपने देश की प्राचीन राजनैतिक, सामाजिक, धाम्मिक तथा साम्पत्तिक संस्थायें नष्ट कर डाली और