पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/५४

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50 / महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली की दशा में शकुन्तला की स्तुति में एक कविता तक बना डाली। सुनते हैं, सर विलियम जोन्स के संस्कृत-शिक्षक बड़े तेज-मिज़ाज आदमी थे । जो बात सर विलियम की समझ में न आती थी उसे गुरुजी से पूछना पड़ता था । गुरु महाशय ठीक तौर से पढ़ाना जानते न थे । वे सर विलियम को भी उसी रास्ते ले जाते थे जिस रास्ते टोल (पाठशालाओं) के विद्यार्थी जाते हैं । इससे सर विलियम को कभी-कभी कोई बात दो-दो, तीन-तीन दफ़े पूछनी पड़ती थी । एक दफ़ बताने से वह उनके ध्यान ही में न आती थी । ऐसे मौकों पर गुरुदेव महाशय का मिज़ाज गरम हो उठता था । आप झट कह बैठते थे-"यह विषय बड़ा ही क्लिष्ट है, गो-मांस-भोगी लोगों के लिए इसका ठीक-ठीक समझना प्रायः असम्भव है"। पर सर विलियम जोन्स पण्डित महाशय को इतना प्यार करते थे और उन्हें इतना मान देते थे कि उनकी इस तरह की मलामतों को हँसकर टाल दिया करते थे। पण्डित रामलोचन कविभूषण 1812 ईसवी तक जीवित थे । वे अच्छे विद्वान् थे। काव्य, नाटक, अलंकार और व्याकरण में वे खूब प्रवीण थे। पर धर्मशास्त्र और दर्शन में उनकी विशेष गति न थी। इसलिए व्याकरण और काव्य का यथेष्ट अभ्यास कर चुकने पर, जब सर विलियम ने धर्मशास्त्र का अध्ययन शुरू किया तब उन्हे एक और पण्डित रखना पड़ा। यवनों को संस्कृत सिखाना पहले घोर पाप समझा जाता था, पर अब इस तरह का ख्याल कुछ ढीला पड़ गया था। इससे सर विलियम को धर्मशास्त्री पंडित ढंढ़ने में विशेष कष्ट नहीं उठाना पड़ा। मर विलियम जोन्स, 1783 ईसवी में, जज होकर कलकत्ते आये और 1794 में वही मरे । हिन्दुस्तान आने के पहले आक्सफ़र्ड में उन्होने फ़ारसी और अरबी मीखी थी। उनका बनाया हुआ फारमी का व्याकरण उत्तम ग्रन्थ है । वह अब नहीं मिलता । बगाल की एशियाटिक सोसायटी उन्ही की कायम की हुई है । उसे चाहिए कि इस व्याकरण को वह फिर से प्रकाशित करे, जिसमें सादी और हाफ़िज़ की मनोमोहक भाषा सीखने की जिन्हें इच्छा हो वे उससे फायदा उठा सकें । हिन्दुस्तान की सिविल सर्विस के मेम्बरो के लिए वह बहुत उपयोगी होगा। [जून, 1908 की 'सरस्वती' में प्रकाशित साहित्य-सीकर' पुस्तक में संकलित।