पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/७२

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68 / महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली पर इनकी बड़ी श्रद्धा थी। इनकी राय थी कि इससे अधिक गम्भीर और उच्च विचारों से पूर्ण दूसरा ग्रन्थ नही । हेगल ने गीता की अच्छी आलोचना नहीं की। इस पर इन्होंने कहा-"गीता के विरुद्ध जितने ही अधिक उग्र विचार हेगल के हैं उतनी ही उम पर मेरी श्रद्धा अधिक बढ़ गई है।" भारतवर्ष में जितनी म्याति मैक्समूलर की है उतनी शायद अन्य योरोपीय पण्डित की नही है । मैक्समूलर ने वैदिक साहित्य का अच्छा अनुशीलन किया। उनका जन्म 1823 ईसवी में जर्मनी के डेशो नामक स्थान में हुआ था। उन्होने लिपजिक, हाल और हर्मन ब्रुक से पहले पहल संस्कृत का परिचय प्राप्त किया। फ्रांस मे आकर उन्होने युजेन वर्गों में संस्कृत पढी। 1849 ईसवी में उन्होंने ऋग्वेद का प्रथम खण्ड प्रकाशित किया । फिर वीस वर्ष तक लगातार परिश्रम करके उन्होने ऋग्वेद को सम्पूर्ण कर डाला। इस काम मे वैरन वुनसेन ने उनको बड़ी महायता दी। ग्वेद के मिवा पचाम भागो मे प्राच्य धाम्मिक ग्रन्थमाला को भी उन्होंने प्रकाशित किया । अचंद्र अच्छ, कई ग्रन्थो की रचना भी. उन्होने की। 1907 में उनकी मृत्यु हो गई जब मैक्समलर माहब ऋग्वेद का सम्पादन कर रहे थे तब कुछ समय तक डाक्टर कीलहान ने भी उन्हें महायता दी थी। डाक्टर कीलहान जर्मनी के निवासी थे । वहीं उन्होंने मंस्कृत पड़ी । लिपजिक से 1866 में उन्होंने लिट्-स्त्री का प्रकाशन किया। व कुछ समय तक पुने के डेकन कालेज में अध्यापक भी रहे । यही उन्होंने अनन्न शाग्त्री नामक एक विद्वान् मे मम्कृत-व्याकरण का अध्ययन किया। फिर उन्होंने नागोजी भट्ट के 'परिभाषेन्दुशेखर' और पतञ्जलि के 'महाभाप्य' का सम्पादन किया। कुछ समय के बाद वे जर्मनी लौट गये । वहाँ वे गार्टीजन मे अध्यापक नियुक्त हुए । वही 1908 गवी में उसकी मृत्यु हुई। आर० पिशल नामक संस्कृतज्ञ विद्वान् का जन्म जर्मनी में ब्रेसला नामक नगर में हुआ । वही उनको शिक्षा मिली । बलिन, आक्मफ़र्ड और लन्दन में भी उन्होने कुछ काल नक अध्ययन किया। 1875 ईमवी में वे कील के विश्वविद्यालय में संस्कृत के अध्यापक हुए। 1885 में उनकी नियुक्ति हेल के सैक्मन विश्वविद्यालय में हो गई। 1902 मे उसमे भी उनका सम्बन्ध छूट गया । तब उन्हे बर्लिन के विश्वविद्यालय में जगह मिली। मृत्यु तक वे उसी पद पर काम करते रहे। उन्होने हेमचन्द्र के कई ग्रन्थो का मम्पादन किया। कालिदाम के काव्यो और वेदों पर भी उन्होंने कई महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिम्वे । वे जैसे संस्कृत के ज्ञाता थे वैसे ही प्राकृन के भी थे। भाग्नवर्ष के शिक्षा विभाग में डाक्टर टीवो का अच्छा नाम है। वे भी जर्मन थे । मैक्समूलर के साथ वे तीन-चार वर्ष तक रहे थे। इसलिए उन्हें भी संस्कृत का अच्छा जान हो गया था। 1785 में वे अध्यापक नियुक्त होकर बनारम भेजे गये । उन्होंने सुल्व-सूत्रों पर एक बड़ा अच्छा निबन्ध लिखा। इससे उनका अच्छा नाम हुआ । बनारस कालेज में वे 1888 ईमवी तक रहे। फिर वे पंजाब के रजिस्ट्रार नियत हुए । इसके बाद वे म्युर मेन्ट्रल कालेज में अध्यापक हुए। उन्होंने 'पंचमिद्धान्तिका' और शंकर- रामानुज-भाष्ययुक्त वेदान्त-सूत्रों का एक उत्तम संस्करण निकाला । इनके सिवा वराह-