पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/८०

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जर्मनी में संस्कृत भाषा का अध्ययन-अध्यापन


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अंगरेज़ लोग संस्कृत भापा के अध्ययन और अध्यापन की ओर बहुत कम ध्यान देते हैं। भारतवर्ष में उनके शासन का आरंभ हुए कोई डेढ़ सौ वर्ष हो चुके। परंतु इस देश के ज्ञान का जो अनंत भांडार संस्कृत के ग्रंथों से भरा पड़ा है उसे आयत्त करने के लिए उन्होंने बहुत ही कम श्रम और यल किया है। उन्होने न अपने ही देश में उसके अध्ययनाध्यापन के लिए यथेष्ट प्रबंध किया और न भारत में ही नियुक्त अपने देश- वासियों के लिए संस्कृत मिखाते की कोई अच्छी योजना की। फल यह हुआ कि कुछ इन-गिने अँगरेज अब तक इस भाषा का अध्ययन कर पाये है । सो भी उन्होंने राज-सत्ता की प्रेरणा से यह काम नहीं किया, किंतु अपनी विद्याभिरुचि की प्रेरणा से किया है। प्रतिकूल इमके अन्य देश वालो ने, उदाहरणार्थ जर्मनी, फ्रांम और आस्ट्रिया के निवामियों ने, इस विषय की ओर अंगरेजों की अपेक्षा बहुत अधिक ध्यान दिया है। उनमें से अनेक विद्वानों ने संस्कृत भाषा और संस्कृत-साहित्य-विशेष करके वैदिक-माहित्य-- अध्ययन करके मैकड़ों उपादेय ग्रंथो की रचना, आलोचना, संपादना और अनुवादना कर डाली है। उनके इस काम से भारतवर्ष को कीति सारे योरप, अमेरिका और चीन- जापान तक फैली है। उन्ही की बदौलत विदेशवामियों ने भारत को अधिकतर पहचाना है, इंगलिस्नान के निवामियो की बदौलत नहीं। क्या वह दुःख और परिताप की बात नही कि जिनका संबंध भारतवर्ष मे इतना घना है वे तो उसके प्राचीन साहित्य से इतने उदासीन रहे और जिनका संबंध उसमे दूर का भी नहीं वे उसके माहित्य के अध्ययन में इतना मनोनिवेश करें? लोगों की शिकायत में पहले हमें कुछ अत्युक्ति जान पड़ती थी; पर उस दिन अंगरेजी के 'माडर्न रिव्यू' नामक मामिक पत्र में एक लेख पढ़ने पर हमारी वह भावना दूर हो गई। यह लेख जर्मनी की गजधानी बलिन विश्वविद्यालय के अध्यापक जान नोवल, पी-एच० डी०, ने, उक्त पत्र के फ़रवरी, 1923 के अंक में, प्रकाशित कगया है। इम लेख मे मूचित है कि इंगलिस्तान की अपेक्षा जर्मनी में मंस्कृत भाषा के पटन- पाठन का बहुत अधिक प्रकार है। वहाँ एक भी प्राचीन और प्रसिद्ध विश्वविद्यालय गेमा नही जहाँ मस्कृत भाषा की शिक्षा के लिए अध्यापक न हो । आज तक उस देश में मैकड़ो जर्मनी-निवामियों ने मंस्कृत भाषा का अध्ययन करके अनेकानेक ग्रंथों का प्रणयन और प्रकाशन कर डाला है। उनकी इस विद्याभिमचि की जितनी प्रशंसा की जाय कम है। इस विषय में जर्मनी और इंगलैंड की पारस्परिक तुलना करने पर आकाश-पाताल का अंतर देख पड़ता है। बलिन के विश्वविद्यालय में संस्कृत भाषा सिखाने के लिए इस समय तीन अध्यापक हैं-लूडर्स, ग्लासनैप और नोबल । लूडर्स जो काम करते हैं वही काम उनके