पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/८८

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84/ महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली महारानी विक्टोरिया को एक बार कोरिया-राज ने एक सम्मान-सूचक खिताब, पदक समेत, भेजा। महारानी ने भी कोरिया के राजेश्वर को सम्मान देना चाहा । इसलिए उन्होंने जी० सी० आई० ई० नामक इस देश से सम्बन्ध रखनेवाली और विशेष आदर- सूचक पदवी उनको प्रदान की। इस पदवी-दान के समय 'स्टैन्डर्ड' नामक समाचार-पत्र का प्रतिनिधि कोरिया में उपस्थित था । अँगरेजी 'कानसल' पदवी सम्बन्धी पदक लेकर राज-प्रासाद में पहुंचा। उसने पहले राजेश्वर को बाकायदा प्रणाम किया। फिर उसने अपने माथियों में से एक एक की पहचान कराई। राजेश्वर ने प्रत्येक की ओर सिर झुकाकर उनके नामों को दुहराया। तदन्तर वार्तालाप आरम्भ हुआ। जहाँ पर यह उत्सव था, वहीं पाम के एक कमरे मे, कोरिया की महारानी और उनकी सहेलियाँ भी थी। जो परदा पड़ा था, वह इतना पतला था कि उसके भीतर से उनके वस्त्राभूषण बखूबी देख पड़ते थे। इस उत्सव के लिए जो तैयारियां की गई थी, उन्हें देखकर कोरिया- नरेश ने प्रसन्नता प्रकट की। जब आपको पदवी-दान हुआ और आप तत्सम्बन्धी पदक आदि से सज्जित और सुशोभित किये गये, तब आपकी प्रसन्नता और तुष्टि का वारापार न रहा। इस समय यही कोरिया-नरेश दो नृपति-सिहो के पेच मे पड़े हुए है। यद्यपि उनसे, इन दोनों मे से कोई भी शत्रु भाव नही रखता, तथापि यह रणाग्नि, जो इस समय सुलग रही है, उन्ही के देश को ग्रास करने के लिए है । इम सिह-युग्म की चपेट मे उनका भी कुछ अनिष्ट हो जाय तो आश्चर्य नही; क्योंकि उनकी पूजा और सेना ने, सुनते है, बलवा शुरू कर दिया है और विदेशियो की मार काट के लिए हथियार उठाया है । मार्च, 1904 को 'सरस्वती' में प्रकाशित । 'संकलन' पुस्तक में संकलित।] -