पृष्ठ:माधवराव सप्रे की कहानियाँ.djvu/३१

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सुभाषित-रत्न

(२)

एक दिन एक विद्वान ब्राह्मण किसी धनवान मनुष्य के पास गया और कहने लगा––"महाराज! मैं कुटुम्ब-वत्सल पंडित हूँ। आजकल भयंकर कराल-रूपी दुष्काल ने चारों ओर हाहाकार मचा दिया है। अन्न महँगा हो जाने के कारण अपना चरितार्थ नहीं चला सकता। आप श्रीमान हैं। परमेश्वर ने आपको अटूट सम्पत्ति दी है। कृपा करके मुझे अपना आश्रय दीजिये। इससे मेरी विद्वत्ता की सार्थकता होगी और आपका नाम भी होगा। बिना आश्रय के पंडितों की योग्यता प्रकट नहीं होती। कहा है कि––'बिनाश्रयं न शोभन्ते पण्डिता वनिता लता'––अर्थात्, पण्डित, वनिता और लता बिना आश्रय के शोभा को प्राप्त नहीं होते। अतएव हे महराज, मुझे आश्रयदान दे यश-सम्पादन कीजिये।"

पण्डित जी का उक्त प्रस्ताव सुनकर धनिक महाशय ने कहा––"पण्डित जी, सुनो, द्रव्य-प्राप्ति के लिए हमें कई प्रकार के उद्योग करने पड़ते हैं। हमारे परिश्रम से कमाए हुए धन में तुम्हारा क्या हक्क है? हरएक मनुष्य को आश्रय देने से देश में आलस की वृद्धि होती है। क्या तुमने पाश्चात्य लोगों का मत नहीं सुना? तुम तो बड़े विद्वान् हो, फिर दरिद्री की नाईं भीख क्यों माँगते हो? जो विद्या तुमने सीखी है, उसके बल पर कुछ रोजगार करो; नहीं तो नौकरी करो।"

"सच है," पंडित जी ने कहा, "महाराज, सच है। आप बहुत ठीक कहते हैं। हम विद्वान होकर ऐसे दरिद्री क्यों हैं, इस बात की