पृष्ठ:माधवराव सप्रे की कहानियाँ.djvu/३२

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शंका जैसी आपको आई, वैसी ही मुझे भी आई थी। इस शंका का निवारण करने के लिए एक दिन मैं प्रत्यक्ष लक्ष्मी के पास गया और उससे पूछा कि––

पद्मे मूढजने ददासि द्रविणं विद्वत्सु किं मत्सरो

हे लक्ष्मी तू ऐसे (उस धनिक की ओर अँगुरी बताकर) मूढ़ लोगों को द्रव्य देती है और विद्वानों को नहीं देती, तो क्या तू विद्वानों का द्वेष करती है? इस पर लक्ष्मी ने उत्तर दिया कि––हे ब्राह्मण,

नाहं मत्सरिणी न चापि चपला नैवास्ति मूर्खे रतिः।
मूर्खेभ्यो द्रविणं ददामि नितरां तत्कारणं श्रूयतां
विद्वान् सर्वजनेषु पूजिततनुर्मूर्खस्य नान्याः गतिः॥

"मैं विद्वानों का मत्सर नहीं करती, मैं चंचल भी नहीं हूँ, और न मैं मूर्खों पर कभी प्रेम रखती हूँ। परन्तु मूर्ख मनुष्यों को नितरां मैं द्रव्य दिया करती हूँ। उसका जो कारण है, वह सुनो। विद्वान लोगों की तो सर्वत्र पूजा हुआ करती है और मूर्खों को कोई भी नहीं पूछता, इसलिए मैं मूर्खों को द्रव्य दिया करती हूँ क्योंकि उन्हें दूसरी गति ही नहीं है।"

महाराज, लक्ष्मी का यह उत्तर यथार्थ है। आज मुझे उसका अनुभव मिला। आप भी इसी मालिका में हैं, यह बात मुझे विदित न थी।" ऐसा कहकर पण्डित जी अपने घर चले आये।

जिस धनवान पुरुष की सभा में उक्त विद्वान महाशय गये थे, उनके पास चापलूसी करने वाले कई खुशामदी लोग भी बैठे हुए थे। अपने मालिक पर ऐसी मखमली झड़ने की नौबत देखकर उनमें से एक बोल उठा कि––"पंडित जी, ऐसे संस्कृत श्लोक कहने वाले यहाँ कई आते हैं। क्या आप समझते हैं कि आप बड़े सुभाषित-वक्ता हैं? कुछ ऐसी